शुक्रवार, 24 जनवरी 2020

Jallianwala Bagh|Theatre Play||Trailer| | Directed by Ashok Banthia|

Not Equal To Love

Ab Diwali by Suraj Prakash

Ab Diwali by Suraj Prakash

Ab Diwali by Suraj Prakash

बुधवार, 22 जनवरी 2020

कहानी संग्रह Kahani Sangrah 137 अल्बर्ट सूरज प्रकाश Suraj Praka

first hindi story of suraj prakash Albert सूरज प्रकाश की पहली कहानी अल्बर्ट

करोड़पति : सूरज प्रकाश Crorepati : Suraj Prakash

कहानी संग्रह Kahani Sangrah 138: रंग–बदरंग (सूरज प्रकाश Suraj Prakash)

कहानी संग्रह Kahani Sangrah 139: खो जाते हैं घर (सूरज प्रकाश Suraj Prakash)

सूरज प्रकाश जी : लेखक व अनुवादक : आईये जाने उनके बारे में रोचक तथ्य

गुरुवार, 29 अगस्त 2019

एक लुप्त हो रही भाषा को बचाने की कोशिश


विभाजन के समय पाकिस्तान के सरायकी इलाके (झंग, मुल्तान, बन्नू, कुहाट, डेरा गाजी खान, डेरा इस्माइल खान वगैरा से लाखों लोग दर बदर होकर इस तरफ आए थे और देश में जहां भी संभव हुआ, बस गए थे। बहुत सारे सरायकी लोग मुंबई की तरफ भी आए होंगे। अपनी जमीन से बिछुड़ने के दूसरे हादसों के साथ जो सबसे ज्यादा नुकसान उन लोगों को उठाना पड़ा था वह था कि उनकी लिखने पढ़ने की भाषा वहीं रह गई थी और सिर्फ बोली ही उनके साथ आयी थी। वह बोली भी दूसरी तीसरी पीढ़ी के आते आते अब अंतिम सांसें ले रही है।
आपको यह जानकर हैरानी होगी कि पाकिस्तान में अभी भी 2 करोड़ लोग सरायकी भाषा लिखते पढ़ते और बोलते हैं और इस भाषा में वहां पर फिल्में बनती हैं और मुल्तान यूनिवर्सिटी में सरायकी विभाग भी है और पीएचडी तक की पढ़ाई होती है। सरायकी भाषा में अच्छा खासा साहित्‍य लिखा जाता है। हम पिछली पीढ़ी के लोग ही कभी कभार घर पर ही अपनी बोली बानी बोल कर खुश हो लेते हैं। आज की पीढ़ी शायद ही अपनी बोली में बात करती हो। ये बहुत बड़ा खतरा है एक शानदार और मुहावरेदार भाषा के खत्म हो जाने का।
इस बात की कोशिश है कि हम मुंबई में बसे सरायकी लोग इस बात की गंभीरता को समझें और आपस में मिल जुल कर अपनी विलुप्त हो रही भाषा को बचाने की कोशिश करें। दिल्ली में ये कोशिश मलिक राज राजकुमार और उनके साथी कर रहे हैं और उन्होंने फेसबुक पर अपनी बोली मुल्तानी पेज बनाया है जिसमें 100000 से अधिक सदस्य हैं। दिल्ली में रेडियो पर भी सरायकी में प्रोग्राम देने शुरू किये जा चुके हैं।
इच्छा है कि मुंबई में भी उन इलाकों से आ कर बसे सभी साथियों का एक समूह बनाया जाए और आपस में संवाद स्थापित किया जाए।
यदि आप भी उन इलाकों से हैं और चाहते हैं कि हम भी अपनी भाषा के लिए कुछ करें तो सहमति दें। हम जल्दी ही मिलने के लिए कोई प्लेटफार्म बनाते हैं।
मेरे माता पिता बन्नू से आए थे और नौकरी के चक्कर में देहरादून में बस गए थे। मैं खुद रिजर्व बैंक की नौकरी में रहा और पिछले 37 बरस से मुंबई में हूं।
आप अपने डिटेल्स दे सकते हैं। जल्द ही हम सब मिलकर
कुछ ठोस काम करने के बारे में सोचते हैं।
आपसे ये भी अनुरोध है कि इस संदेश को अपने परिचित सरायकी बंधुओं तक पहुंचाएं। 

मंगलवार, 27 अगस्त 2019

वक्त आ गया है कि वृक्षों की खेती की जाए - सुंदरलाल बहुगुणा



आज मुंबई के नवभारत टाइम्स में। एक देवतुल्य व्यक्तित्व से मुलाकात।
पढ़ने की सुविधा के लिए मूल लेख दे रहा हूं
पिछले दिनों की देहरादून की यात्रा की सबसे बड़ी उपलब्धि रही चिपको आंदोलन के प्रणेता देवतुल्य पद्म विभूषण सुंदरलाल बहुगुणा जी से मिलना। बहुगुणा जी अपनी बेटी और दामाद के पास रहते हैं और प्रसिद्ध पर्यारणविद और प्रखर पत्रकार उनके पुत्र राजीव नयन बहु्गुणा जब देहरादून में होते हैं तो उनके आसपास ही बने रहते हैं।
जब मैं बहुगुणा जी से मिलने पहुंचा तो तीसरी मंजिल की छत पर लेटे हुए धूप सेंक रहे थे। निश्चित ही वे छत पर खुद ही आये होंगे। बेहद आकर्षक व्यक्तित्व, लंबी सफेद दाढ़ी और पतली लेकिन सीधी तनी काया। जब वे धीमे धीमे बात करते हैं और बीच बीच में बच्चों जैसी निश्छल हँसी हँसते हैं तो जी करता है बस, उनकी बातें सुनते रहें। उनके पास स्मृतियों का अद्भुत खजाना है।
वे बात शुरू करते हुए बताते हैं कि हमारे ऋषियों ने कहा है कि एक पेड़ दस पुत्रों के समान होता है। जीने के लिए सबसे जरूरी हैं आक्सीजन और पानी। पेड़ होंगे तो आक्सीजन भी मिलेगी और जमीन इस लायक भी होगी कि पानी के बहाव को रोक सके। आप बाकी चीजें तो जुटा सकते हैं लेकिन आक्सीजन कहां से लायेंगे। भारतीय संस्कृति का विकास जंगलों में ही हुआ है। वहां ऋषि मुनि रहते थे और जीवन यापन करते थे, वे अपने वातावरण के प्रति बहुत सतर्क थे जबकि हमारा सिस्टम ही वनों का दुश्मन है। 
वे बताते हैं कि इंदिरा गांधी पर्यावरण के पति बहुत सतर्क थीं। उन्हीं के आदेशों के चलते पन्द्रह बरसों के लिए पेड़ों के कटान पर रोक लगी थी। उन्होंने राज्यों से कह रखा था कि एक पेड़ भी काटा गया तो ग्रांट बंद हो जाएगी। अभी भी एक हजार फुट से ऊपर के इलाकों पर पेड़ कटने बंद हैं। तभी राजीव नयन ने बताया कि गंगोत्री और बदरी नाथ वगैरह से ऋषिकेश तक सड़कें चौड़ी करने के लिए पचास हजार पेड़ों की बलि दी जा रही है और गलत तरीकों से की जा रही इस कटान से दस मजदूर मर चुके हैं। वे चिंता व्यक्त करते हैं कि पहाड़ों पर फोर लेन सड़कें बना कर कारें सरपट दौड़ाने की क्या जरूरत है।
सुंदरलाल बहुगुणा जी ने न केवल पेड़ बचाने के लिए आंदोलन और उपवास किये थे, वे टिहरी बांध बनने के लिए भी वे लंबे उपवास पर बैठे थे। वे मानते हैं कि वनों की उपज पर पहला हक वहां के निवासियों का होता है न कि सबसे ज्यादा कीमत देने वाले ठेकेदारों का।
वे आगे बताते हैं कि जंगलों का सबसे ज्यादा नुक्सान अंग्रेजों ने किया। वे पहाड़ों पर चीड़ के वन लगा गये। चीड़ कारोबारी रूप से कमाऊ दरख्त है लेकिन प्रकृति का संतुलन बिगाड़ता है। इसकी पत्तियां अम्लीय होती हैं और जमीन को भी अम्लीय बाती हैं। चीड़ की जड़ें पानी को रोकती नहीं और इन पेड़ों के नीचे कुछ उगता नहीं। अब अंग्रेज ठहरे व्यापारी। चीड़ के लट्ठे नदियों में बहा कर नीचे तक लाते और अच्छी कमाई करते। नतीजा ये हुआ कि पहाडों पर गरीबी बहुत हो गयी। पहले वहां मनुष्य और जमीन का अनुपात बहुत अच्छा था। लोग कम थे और जमीन ज्यादा थी। अब वहां गरीबी सबसे ज्यादा है।
नदियों के प्रदूषण पर बात चलने वे कहते हैं कि पहाड़ों पर नदी सर्पाकार चलती है, ऊपर से नीचे की ओर दोनों कूलों से टकराती हुई बहती है तो इस तरह से पहाड़ों से टकरा कर अपने आपको साफ करती चलती रहती है लेकिन नीचे उतरने के बाद उसमें हर तरह की गंदगी डाली जाती है। अब नदियों को गंदा होने से बचाने के बजाये सारा धन और श्रम नदियों की सफाई पर खर्च किया जा रहा है। ये तरीका गलत है।
वे पानी की कमी पर अपनी चिंता व्यक्त करते हुए बताते हैं कि जिस पानी के लिए मुगल बादशाह प्याऊ लगाते थे वही पानी अब बोतलों में बिक रहा है। साफ पानी अब सबसे बड़ी समस्या हो गयी है। ऐसा कब तक चलेगा।
अपने पुराने साथियों को याद करते हुए वे अपने साथी कवि घनश्याम सैलानी और कुंवर प्रसून के नाम लेते हैं। बताते हैं कि स्वास्थ्य के कारणों से वे अब देहरादून ही रहते हैं तो बाकी साथियों से मिलना नहीं हो पाता।
अपनी सबसे लंबी यात्रा के बारे में वे उत्साह से बताते हैं - मैं 1981 से 1983 तक 4867 किमी की कश्मीर से कोहिमा की यात्रा पर निकला था। मध्य हिमालय से होते हुए कश्मीर से उत्तराखंड, नेपाल, हिमाचल प्रदेश, सिक्किम, भूटान और अरुणांचल प्रदेश होते हुए कोहिमा तक पहुंचा था। इस यात्रा में तीन सौ दिन लगे थे और ये यात्रा बिना पैसे के की गयी थी। सब जगह बच्चे मेरा पिट्ठू बैग देख कर हिप्पी हिप्पी चिल्लाते। मैं स्थानीय निवासियों और बच्चों के साथ पेड़ों और पर्यावरण की बात करता। लोग मुझसे पूछते कि आप खायेंगे कहां और रहेंगे कहां। मैं सबसे कहता कि अपने घर से मेरे लिए एक रोटी ले आओ। इस चक्कर में पचासों रोटियां जमा हो जातीं। सारे गांव वाले हैरान हो जाते कि एक रोटी वाला कौन आया है भाई। वैसे यात्रा में और लोग जुड़ते जाते थे लेकिन चला मैं अकेला ही था। कश्मीर में शेख अब्दुल्ला ने एक फारेस्ट कंजरवेटर सरदार सोहन सिंह को मेरे साथ लगा दिया था कि इन्हें कश्मीर के बाहर तक छोड़ आओ।
बहुगुणा जी बताते हैं - तेरह बरस की उम्र में सावर्जनिक जीवन में आ गया था। नौकरी की नहीं कभी। बस एक कम बाद एक मिशन इस जान के साथ जुड़ते चले गये।
जब मैं उनकी उम्र पूछता हूं तो वे बाल सुलभ हँसी के साथ बताते हैं कि 91 पार कर चुका बौर शतक पूरा करूंगा।
मनुष्य और प्रकृति के रिश्ते को बेहतर बनाने के लिए वे बताते हैं कि अब तो एक ही तरीका बचता है कि वृक्षों की खेती की जाए। ऐसे फलदार वृक्ष लगाए जाएं जिनकी न्यूट्रीशन वैल्यू बहुत ज्यादा होती है जैसे कि अखरोट। इनसे आक्सीजन भी मिलती है और पानी का बहाव भी रुकता है।
वे आखिर में एक गीत सुनाते हैं जिसकी शुरू की पंक्तियां इस तरह से हैं- 
धन्यवाद ए प्रभु तेरा
हम करते बारम्बार
वृक्षों का कर सृजन निकट से 
करता हमको प्यार
प्राण वायु इनसे मिल पायी
भोजन जल की है बहुतायी।
मैं अपने आपको खुशकिस्मत मानता हूं कि उनके विराट व्यक्तित्व के दर्शन करने और उनके सानिध्य में कुछ घंटे बिताने का मौका मिला। वे सौ बरस जीने की अपनी इच्छा पूरी करें।

बोध कथा - बर्तनों के बच्चे

बोध कथा - बर्तनों के बच्चे
बचपन में ये कथा सुनी थी।
अब बोध कथा के रूप में प्रस्तुत है।
एक गांव में रहने के लिए एक नया शहरी आया। चाय पानी के बहाने सबसे मेल जोल बढ़ाया।
एक दिन वह गांव के सबसे धनी आदमी के घर पहुंचा और बोला - शहर से कुछ मेहमान आने वाले हैं। खाना बनाने के लिए बर्तन कम पड़ रहे हैं। थोड़े से बर्तन उधार दे दीजिये, शाम को लौटा दूंगा।
अब भला बर्तनों के लिए कौन मना करता है। उन्होंने गिन कर ढेर सारे बर्तन दे दिए।
शाम को जब बर्तन वापिस आए तो धनी आदमी ने देखा कि दो एक कटोरी और कुछ चम्मच ज्यादा हैं। पूछने पर शहरी ने लापरवाही से बताया कि बर्तनों ने बच्चे दे दिए होंगे। धनी आदमी हैरान - ये तो अनहोनी बात है कि बर्तन भी बच्चे देते हैं। अब वह भला घर आए अतिरिक्त बर्तनों को कैसे ठुकराता।
अब तो ये अक्सर होने लगा। बर्तन मांगे जाते और शाम को कुछ अतिरिक्त बर्तन भी मिल जाते। धनी व्यक्ति खुश।
अब होने ये लगा कि बहुत ज्यादा बर्तन मांगे जाने लगे और बच्चों के रूप में बर्तन भी बड़े और ज्यादा आने लगे।
एक दिन हुआ ये कि शहरी आदमी ढेर सारे बर्तन ले गया और कई दिन तक वापिस ही नहीं किए। सेठ घबराया और खुद चल कर शहरी के घर पहुंचा और बर्तनों के बारे में पूछा।
शहरी आदमी लापरवाही से बोला - वो ऐसा हुआ कि बीती रात सारे बर्तन मर गए।
सेठ हैरान - भला बर्तन कैसे मर सकते हैं।
शहरी बोला - ठीक उसी तरह से जिस तरह से बर्तनों के बच्चे हो रहे थे।
इस बोध कथा का उस देश से कुछ लेना देना नहीं है जहां पहले कुछ चतुर लोग बैंकों से पैसा उठा कर वक्त पर लौटाते भी रहते हैं और बैंक कर्मियों को कीमती उपहार दे कर खुश रखते हैं।
फिर एक दिन आता है कि बैंकों से चतुर लोगों के पास गया सारा धन खुदकुशी कर लेता है। सुसाइड नोट भी नहीं मिलता।
कर लो जो करना है।

अच्‍छी किताबें पाठकों की मोहताज नहीं होतीं


अच्‍छी किताबें पाठकों की मोहताज नहीं होतीं। वे अपने पाठक खुद ढूंढ लेती हैं। उन्‍हें कहीं नहीं जाना पड़ता। पाठक भी अच्‍छी किताबों की तलाश में भटकते रहते हैं। अच्‍छी किताबें पा लेने पर पाठक की खुशी का ठिकाना नहीं रहता। किताबें जितनी ज्‍यादा पीले कागज़़ वाली, पुरानेपन की हल्‍की-सी गंध लिये और हाथ लगाते ही फटने-फटने को होती हैं, उतनी ही ज्‍यादा कीमती और प्रिय होती हैं। किताबें जितनी ज्‍यादा मुड़ी-तुड़ी, कोनों से फटी हुई और पन्‍ना-पन्‍ना अलग हो चुकी होती हैं, उनके नसीब में उतने ही ज्‍यादा पाठक आये होते हैं।
अच्‍छी किताबें अक्‍सर अपने घर का रास्‍ता भूल जाती हैं और दर-दर भटकते हुए नये-नये पाठकों के घर पहुंचती रहती हैं। खराब किताबें सजी-संवरी एक कोने में बैठी अपने पाठक की राह देखती टेसुए बहाती रहती हैं। बदकिस्मती से गलत जगह पड़ी अच्‍छी किताबें भी अपने पाठक की राह देखते-देखते दम तोड़ देती हैं और उनमें भरा सारा ज्ञान सूख जाता है।
अच्‍छी किताबें अच्‍छे पाठकों को देखते ही खिल उठती हैं और खराब पाठकों की सोहबत में कुम्हलाती रहती हैं। किताब खराब हो और पाठक अच्‍छा हो तो भी बात नहीं बनती। किताबें हिंसक तो हो ही नहीं सकतीं। किताबें न तो कभी हम पर छींटाकशी करती हैं और न ही कभी गुस्सा होती हैं। हम उनके पास कभी जायें तो वे हमें सोते हुए नज़र नहीं आयेंगी। हम उनसे कुछ भी जानकारी मांगें या कोई भी उलटा-सीधा सवाल पूछें, वे तब भी हमसे कुछ भी नहीं छिपायेंगी। किताबें उदारमना होती हैं।
हम उनके साथ शरारत करें तो भी वे कुछ भी नहीं बोलेंगी। कितनी भली होती हैं किताबें कि किसी भी बात का बुरा नहीं मानतीं। आप कबीर के पास मिलान कुंडेरा को बिठा दीजिये या ओरहान पामुक को रहीम के पास बिठा दीजिये, दोनों ही किताबें बुरा नहीं मानेंगी, आप अगली सुबह उनकी जगह बदल कर पामुक को श्‍याम सिंह शशि के पास और कामू को संत रैदास के पास जगह दे दीजिये, वे इसका भी बुरा नहीं मानेंगी।
किताबें हमें दोस्‍त बनाना चाहती हैं और हमारे साथ अपना सब कुछ शेयर करना चाहती हैं, लेकिन हम हैं कि अच्‍छी किताबों से मुंह चुराते फिरते हैं। किताबें छोटे बच्‍चे की तरह हमारे सीने से लग जाने को छटपटाती हैं लेकिन हम हैं कि जूते पर तो चार हज़ार रुपये खर्च कर देंगे, बच्‍चे को खिलौना भी हज़ार रुपये का दिलवा देंगे लेकिन हम किताब की हसरत भरी निगाहों की अनदेखी करके आगे बढ़ जायेंगे। भला बंद किताबें भी किसी को कुछ दे सकती हैं!! नहीं ना!!
सोचें कि पूरी दुनिया में जितनी किताबें छपती हैं, उनमें से कितनों को पाठक नसीब होते होंगे और कितनी किताबों की जितनी प्रतियां छपती हैं उनमें से कितनी प्रतियां बिन खुले ही रह जाती होंगी। कई किताबों को तो अपनी पूरी उम्र बिता देने के बाद भी एक भी पाठक नसीब नहीं होता।
अर्थशास्त्र में एक सिद्धांत पढ़ा था कि बुरी मुद्रा अच्‍छी मुद्रा को चलन से बाहर कर देती है। हमारे वक्‍त का ये बहुत कड़ा सच अच्‍छी और बुरी किताबों पर भी लागू होता है। अच्‍छी किताबें कम छपती हैं, अच्‍छी किताबों के लेखक भी कम होते हैं और उनके पाठक तो और भी कम होते हैं लेकिन सिर्फ कम होने के कारण उनका महत्‍व कम नहीं हो जाता। ये बात अलग है कि बहुत ज्‍यादा संख्‍या में छप रही, पुरस्कृत और समीक्षित हो रही खराब किताबों की भीड़ में अच्‍छी किताबें नज़र ही नहीं आतीं और कई बार पाठकों तक पहुंचने से पहले ही दम तोड़ देती हैं।
कलाम साहब ने किताबों को ले कर क्‍या ही खूबसूरत बात कही है। एक अच्‍छी किताब सौ दोस्‍तों के बराबर होती है और एक अच्‍छा दोस्‍त पूरी लाइब्रेरी के बराबर होता
प्रिय मित्र अर्पणा दीप्ति के लिए सस्नेह

बोध कथा 6


बहुत पहले की बात है। नयी नयी नौकरी थी। वेतन मिला था। खुश होना लाजमी था। सब दोस्त फिल्म देखने निकले।
रास्ते में भीड़ में कोई जेबकतरा मेहरबान हुआ और जेब साफ। जब तक पता चलता, मेरा पर्स निकाला जा चुका था। हम सबने शोर मचाया। तय था कि जेबकतरा अभी आसपास ही था लेकिन वहां आसपास जितने भी लोग थे, निर्विकार लग रहे थे। किसी पर भी शक करने की गुंजाइश नहीं लग रही थी। अलबत्ता, जब हमने बहुत शोर मचाया तो बीसियों सुझाव आने लगे कि पुलिस में जाओ या सबकी तलाशी लो, ये करो और वो करो लेकिन कुछ भी नहीं किया जा सका। चिंताएं कई थीं। कमरे का किराया, पूरे महीने का खर्च और घर भेजे जाने वाले पैसे।
भीड़ कुछ कम हुई तो मलंग जैसा दिखता एक आदमी हमारे पास आया और बहुत ही गोपनीय तरीके से बताने लगा कि वह काला जादू जानता है और चौबीस घंटे के भीतर जेबकतरे को हमारे सामने पेश कर सकता है। वह दावा करने लगा कि उसके काले जादू से कोई नहीं बच सकता। आओ मेरे साथ। तय था कि पुलिस से मदद मिलने वाली नहीं। हम उसके पीछे चल पड़े।
वह पास ही एक कोठरी में हमें ले गया। दस बीस सवाल पूछे उसने और अपनी फीस की पहली किस्त मांगी - इक्यावन रुपये और ग्यारह अंडों की कीमत। बाकी भुगतान पर्स वापिस मिल जाने पर। हमने सोचा यह करके भी देख लिया जाये। पूरे महीने के वेतन की तुलना में सौदा महंगा नहीं लगा और दोस्तों ने उसकी सेवा की पहली किस्त चुकायी। उसने दिलासा दी कि चौबीस घंटे के भीतर जेबकतरा रोता गिड़गिड़ाता हमारे सामने होगा। हमारा पता उसने नोट कर लिया।
अगले दिन वह हमारे कमरे पर हाजिर था। बताने लगा कि बस चोर का पता लगा लिया है और वह उसकी पावर के रेडियस में आ चुका है। बस अगले कुछ घंटे में वह गिड़गिड़ाते हुए खुद आयेगा। इस बार इक्यावन रुपये और इक्कीस अंडों की कीमत ले गया।
किस्सा कोताह कि वह हर तीसरे चौथे दिन आता और कुछ न कुछ वसूल कर ले जाता। कभी कहता कि चोर आपके घर का पता तलाश कर रहा है और कभी कि बस चल चुका है। जब हमने देखा कि उसकी फीस हमारे खोये पर्स से भी आगे बढ़ने वाली है तो हमने हाथ खड़े कर दिये। ये सब भी तो चंदा करके दिया जा रहा था उसे।
उसने एक दिन की मोहलत और मांगी और इस बार मुर्गे की कीमत ले गया।
अगले दिन वह हड़बड़ाता हुआ आया। हमारे कमरे में ही धुनी रमायी और आंखें मूंदे कुछ मंत्र उछाले, कुछ चेतावनियां बरसायीं और कुछ धमकियों का धुंआ किया। अचानक उसने चिल्लाना शुरू कर दिया – चोर मेरे सामने है। वह आपका पर्स मार कर बहुत शर्मिंदा है। वह खुदकुशी करने जा रहा है। वह बस नदी तक पहुंचने वाला है। जल्दी बताइये क्या करूं। एक मामूली पर्स के चक्कर में उसके बच्चे अनाथ हो जायेंगे। जल्दी बतायें, वह बस छलांग मारने वाला है। कहिये तो उसे रोकूं। मुझ पर हत्या का दोष लगेगा।
पाठक गण समझ सकते हैं कि हमने तरस खा कर जेबकतरे को खुदकुशी करने से रोका ही होगा और रहीम खां बंगाली को भी कुछ दे दिला कर ही विदा किया होगा।
डिस्क्लेमर : यह एक सच्ची घटना है और इसकी तुलना उस देश से न की जाये जहां आम आदमी, बैंक, जेबकतरे और बिचौलियों के बीच ये खेल अरसे से खेला जा रहा है। बेशक वहां जेबकतरा खुदकुशी करने के बजाये शर्म के मारे देश छोड़ कर चला ही जाता है।

जीओ मेरे लाल


हमारे एक मित्र अपने एक रिश्तेदार का किस्सा सुना रहे थे। जनाब 91 बरस के हैं। रोज दोनों टाइम कोई न कोई नान वेज डिश और रात को व्हिस्की के तीन पैग बरसों से उनकी खुराक है। वे फिट और स्वस्थ हैं और अपने आप में मस्त रहते हैं।
अब हुआ ये कि उनके कोई परिचित उनके बेटे से मिलने आए। जब उन्हें सीनियर की खुराक का पता चला तो वे नाराज़ हुए-क्या गजब करते हो। उन्हें इस उम्र में ये सब देते हो। कहीं कुछ हो गया तो।
सीनियर के 65 वर्षीय बेटे ने शांत स्वर में कहा - हम उनकी खाने पीने की आदतें नहीं बदल सकते। उन्हें कुछ भी नहीं होने वाला।
मेहमान हैरान। ये कैसा जवाब है।
तब बेटे ने समझाया-इनके कई फैमिली डाक्टर रहे जो इन्हें पिछले पचास बरसों से पीने से मना करते रहे। अफसोस कि वे सारे डाक्टर भगवान को प्यारे हो गए।
बाबा हैं कि न पीना छोड़ा न जीना।

वो होली

होली पर एक पुरानी लेकिन सरस रचना

कई होलियाँ याद आती हैं। बचपन के शहर देहरादून की होलियाँ जहाँ बड़े लोग झांझ मझीरे ले कर फ़िल्मी गानों की अश्लील पैरोडियाँ गाते हुए गली मोहल्लों में निकलते थे। हमें सहसा यकीन नहीं होता था कि ये बड़े भाइयों सरीखे युवा लोग, जिनकी हम इतनी इज़्ज़त करते हैं और उनसे इतना डरते हैं, इस तरह से सरेआम अश्लील गाने भी गा सकते हैं।
बाद में जब हैदराबाद गया तो वहाँ की होलियाँ याद आती हैं। लोग अपने चेहरे पर पहले ही सफ़ेद रंग का कोई पेंट पोत कर निकलते थे ताकि उस पर कोई दूजा रंग चढ़े ही नहीं। फिर बाद में मुंबई की होलियाँ। रंग खेलने के बाद जुहू तट पर जाना याद आता है जहाँ हज़ारों लोग रंग खेलने के बाद हरहराते समंदर के साथ होली खेलने आते हैं और समंदर सबसे थोड़ा थोड़ा रंग ले कर बहुत रंगीन हो जाता है और जब ठाठें मारता हुआ सबसे होली खेलने के लिए हर ऊंची लहर के साथ सब को गले लगाने के लिए आगे बढ़ता है तो बहुत ही रमणीय नज़ारा होता है।
वैसे मुंबई वासी अपनी ही सोसाइटियों में होली खेलते हैं। बहुत ऊंची आवाज़ में संगीत, एक दूजे की बीवियों पर बाल्टी भर-भर कर या माली वाले पाइप से पानी डालना, बस यही होली होती है, आम मुंबइया बाबुओं की। सड़कों पर टोलियाँ कम ही निकलती हैं। हाँ, कुछ लोग पी-पा कर सड़क पर शाम तक बेसुध पड़े रहते हैं। कुछेक युवा हा हा हू हू करते हुए तेज़ रफ़्तार गाड़ियाँ चलाते भी नज़र आ जाते हैं।
अब तो कई बरसों से होली खेलना ही छोड़ दिया है। बहुत हो ली होली। अगर कपड़े गीले करवाना ही होली है तो नहीं खेलनी मुझे। पहले से तय नहीं रहता कि होली खेलने नीचे उतरना है या नहीं। मूड बना तो ठीक वरना घर पर ही भले।
मैं यहाँ अमदावाद की जिस होली का ज़िक्र कर रहा हूँ, दरअसल ये घटना होली के दिन की नहीं, शाम की है। स्थानीय अख़बार गुजरात वैभव ने किसी पार्टी प्लॉट पर रात्रि भोज का निमंत्रण दिया था। मैं और मेरे कवि मित्र श्री प्रकाश मिश्र भी आमंत्रित थे। वैसे हम दोनों कहीं भी एक साथ जाते थे तो मेरी मोटर साइकिल पर ही चलते थे, लेकिन उस दिन पता नहीं कैसे हुआ कि उनके स्कूटर पर ही चलने की बात तय हुई। शायद सात आठ कि.मी. जाना था।
जब वहाँ पहुँचे तो कई परिचित लोग मिले। बातचीत होती रही। खाने से पहले भांग मिली ठंडाई का आयोजन था। मैंने भी लोगों की देखा देखी दो एक गिलास ठंडाई ले ली लेकिन कुछ ख़ास मज़ा नहीं आया। तभी आयोजक शर्मा परिवार के सबसे युवा मनीष शर्मा जो मेरे अच्छे परिचित थे, मेरे पास आए और बात करते हुए अचानक उन्होंने पूछा कि मैंने ठंडाई ली है या नहीं। जब मैंने बताया कि हाँ, ली तो है लेकिन मुझे तो इसमें कोई ख़ास बात नज़र नहीं आई। वे मुस्कुराए और मेरी बाँह पकड़ कर मुझे एक तरफ़ ले जाते हुए बोले, अरे, इस चालू ठंडाई में थोड़े ही मज़ा है, आइए मैं आपको ख़ास तौर पर ख़ास मेहमानों के लिए बनाई गई ठंडाई पिलाता हूँ।
वे मुझे एक कमरे में ले गए जहाँ ख़ास लोगों के लिए ख़ास ठंडई का इंतज़ाम था। एक बड़ा गिलास मुझे पेश किया गया और तब मुझे लगा, हाँ इस गिलास में कुछ था। एक गिलास हलक से नीचे उतारा ही था कि उनके बड़े भाई ने एक और गिलास ज़बरदस्ती पिला दिया।
साढ़े नौ बजने को आए थे। मेहमानों ने भोजन करना शुरू कर दिया था। ज़मीन पर बिछी जाजमों पर बैठ कर भोजन करना था। स्वादिष्ट भोजन था। पूरी कचौरी, हलवा वगैरह और गुजरात के स्थानीय और होली के व्यंजन।
अब तक भांग ने अपना काम करना शुरू कर दिया था। मैं खाना तो खा रहा था लेकिन धीरे-धीरे मुझे महसूस होना शुरू हुआ कि मुझे खाने के हर निवाले के लिए अपना हाथ धरती में बहुत नीचे तक ले जाना पड़ रहा है और मेरा हाथ वहाँ तक पहुँच ही नहीं पा रहा है। पानी पीना चाहा तो गिलास तक हाथ ही न पहुँचे। मेरी हालत ख़राब हो रही थी, मुझे बहुत ज़्यादा भूख और प्यास लगी थी लेकिन किसी भी चीज़ तक मेरा हाथ ही नहीं पहुँच पा रहा था। मैं ऊँचाई और गहराई का अहसास खो चुका था। मैं भुनभुना रहा था, बड़बड़ा रहा था लेकिन किसी तक भी अपनी आवाज़ नहीं पहुँचा पा रहा था कि कोई मुझे बताए कि मैं क्या करूँ। पंगत में साथ बैठे खाने वाले कब के खा कर जा चुके थे और मेरी पत्तल में अभी भी खाने की चीज़ें जस की तस पड़ी हुई थीं और मैं बेहद भूखा था।
शायद मैं आधा घंटा तो इसी हालत में बैठा ही रहा होऊँगा। तभी श्री प्रकाश मिश्रा जी मुझे ढूँढते हुए आए और बोले चलो भई, बहुत खा लिया तुमने। और कितना खाओगे। साढ़े ग्यारह बज रहे हैं। चलना नहीं है क्या।
मैं आधे अधूरे पेट उठा तो दूसरी समस्या शुरू। उनके स्कूटर की सीट मुझे इतनी ऊँची लग रही थी कि मैं किसी तरह भी उस पर चढ़ नहीं पा रहा था। आस पास तमाशबीन जुट आए थे। मैं लगातार इस बात का रोना रो रहा था कि मैं आख़िर इतनी ऊँची सीट पर चढूँ कैसे? तभी मैंने देखा कि चार पाँच आदमियों ने मुझे किसी तरह से गोद में उठा कर स्कूटर पर बैठा ही दिया है। श्री प्रकाश जी ने स्कूटर स्टार्ट किया और मैंने उन्हें पीछे से कस कर पकड़ लिया।
अब एक और मुसीबत शुरू हो गई मेरे साथ। मुझे लगा कि ये स्कूटर अनंत काल से चल ही रहा है और हम कहीं नहीं पहुँच रहे। मैंने कम से कम बीस बार तो मिश्रा जी से पूछा ही होगा कि हम पहुँच क्यों नहीं रहे हैं।
आख़िर जब मुझे अपना घर नज़र आया तो मैं छोटे बच्चे की तरह खुशी से चिल्लाने लगा कि मेरा घर आ गया। मिश्र जी ने मुझे किसी तरह से स्कूटर से उतारा, मेरी जेब से चाबी निकाली और दरवाज़ा खोला। मिश्रा जी कब वापस गए और मैं कब सोया, मुझे कोई ख़बर नहीं। अलबत्ता सुबह जब उठा तो पिछली रात की अपनी सारी बेवकूफ़ियाँ मुझे याद थीं।
हँसी भी आ रही थी कि भांग भी क्या चीज़ है कि अच्छे भले आदमी का कार्टून बना देती है।

कुर्सी खाली करने के बाद.....

चुनावी माहौल में एक बहुत पुरानी रचना (शायद बीस बरस पुरानी)

खबर है कि पोलैंड के भूतपूर्व राष्ट्रपति अब फिर से अपने पुराने धंधे में लौटना चाहते हैं। वे मजदूर नेता से राष्ट्रपति बनने से पहले बिजली मिस्त्री थे। अब फिर से वे बिजली की बिगड़ी चीजें दुरुस्त करेंगे।
स्वाभाविक है कि जब वे ये काम करेंगे तो अपने संस्थान के सेवा नियमों का भी पालन करेंगे। वक्त से आएंगे, जाएंगे। दिन भर डांगरी या यूनिफॉर्म पहनकर अपने औजारों का झोला लटकाए ड्यूटी बजाते मिलेंगे। लंच का भोंपू बजने पर साथियों के साथ मिल बैठ कर टिफिन खोलेंगे। शाम होते ही अपनी साइकिल की घंटी टुनटुनाते हुए बाजार से सब्जी भाजी लाते हुए घर लौटेंगे। यह भी स्वाभाविक है कि नौकरी के साथ जुडी सारी सुविधाओं का लाभ भी उठाएंगे। वे भी महंगाई भत्ते की अगली किस्त का, वार्षिक वेतन वृद्धि का और त्योहार अग्रिम का इंतजार करेंगे। उनके संस्थान में जब हड़ताल होगी तो वे भी नारेबाजी करेंगे ही, बेशक तोड़फोड़ ना करें।
ये सारी बातें सोचते हुए ख्याल आ रहा है कि अगर हमारे यहां भी सेवानिवृत्त या भूतपूर्व या हारे हुए प्रधानमंत्री, राष्ट्रपति, केंद्रीय मंत्री या अन्य नेतागण भी अपने पुराने काम धंधे पर लौटने लगे तो कैसा माहौल बनेगा। राजीव गांधी की हत्या ना हुई होती तो वे भी 10 सशस्त्र कमांडो से घिरे जहाज चला रहे होते या अक्सर होने वाली पायलटों की हड़ताल में हिस्सा ले रहे होते। ज्ञानी जैल सिंह बढ़ई गिरी करते हुए कुर्सियां मेजें ठोकते मिलते। जो राष्ट्रपति या मंत्रीगण खेती की पृष्ठभूमि से आए हैं वे भी सेवानिवृत्ति के बाद बीज भंडार में या डीजल या खाद के लिए अपनी बारी का इंतजार करते हुए दिन गुजारते। कितना अजीब लगेगा नारियल की खेती से जुड़े भूतपूर्व नेता को पेड़ पर चढ़ कर नारियल तोड़ते देखकर।
वैसे तो अपने यहां ना तो कोई नेता रिटायर होता है ना भूतपूर्व। भूतपूर्व मंत्री गवर्नर बना दिए जाते हैं और वर्तमान गवर्नर सक्रिय राजनीति में आकर मंत्री बनने के लिए रात दिन छटपटाते रहते हैं। कुर्सी से उनका नाता सिर्फ ऊपर वाला ही काट सकता है। उस हालत में उनकी कुर्सी, पद, मकान वगैरह उनके परिवारजनों के हिस्से में ही आते हैं। वे न भी लेना चाहते हों तो चमचे उनके पैर पकड़ते हैं कि आप आ जाइये। आप ही देश को बचा सकती हैं।
अब संकट अपने देश का ये है कि यहां के ज्यादातर नेता आपराधिक पृष्ठभूमि वाले हैं। इस चुनाव में उन वृद्ध और वयोवृदृध नेताओं की आखिरी खेप भी निपट जायेगी जो वाया आजादी की लड़ाई राजनीति में आए थे। बाद में तो जो भी सत्ता संभालेंगे उनकी सप्लाई का ठेका अपराध जगत ही लेगा। जो आपराधिक पृष्ठभूमि से नहीं भी आए हैं, उनके कारनामें ऐसे हैं कि प्रोफेशनल अपराधी उनसे ट्रेनिंग लें। खैर, जो नेता आपराधिक पृष्ठभूमि से आए हैं
उन नेताओं को वहीं वापिस लौटना होगा। वैसे तो वे चुने जाने के बाद भी बिना वापिस लौटे अपने पुराने धंधे ही करते रहे हैं। कई नेताओं ने तो चुनाव भी जेल में रहते हुए लड़े और जीते हैं। शायद ही किसी देश की राजनीति में एक साथ बलात्कारी, स्मगलर करचोर, रिश्वतखोर, जालसाज, अपराध जगत से सीधा नाता रखने वाले, सरकारी मकान पर कब्जा जमाए रखने वाले करोड़ों डकार जाने वाले नेता एक साथ मिलें। तो क्या फर्क पड़ेगा अगर वो रिटायर हो भी जाएं। हां जो जेल से आए थे उन्हें जरूर तकलीफ होगी। इतनी सुविधाएं भोगने के बाद फिर से चक्की पीसना भारी पड़ेगा।
कुछ ऐसे भी होंगे जिन्हें अपना पुराना धंधा अपनाने में तकलीफ होगी। पहले सत्संग करते थे, आशीर्वाद देते थे। हालांकि पैर छूने वालों की यहां भी कमी नहीं है लेकिन राजनीति का खून चख लेने के बाद भला गंगाजल और कंदमूल उन्हें कैसे लगेंगे।
कुछेक के लिए तकलीफ होगी कि वे कई कई बरसों से अपने चुनाव क्षेत्र में ही नहीं गये है। उनके मतदाता लट्ठ लिये उन्हें ढूंढ रहे हैं। कुछेक को तो वे लोग ढूंढ रहे हैं जिनका पैसा खाकर भी काम नहीं किया गया है।
ऐसा नहीं है कि हमारे सारे नेता वहीं से आये हों। कई तो दूध के धुले हुए हैं। वे भी और उनके वस्त्र भी। कहीं कोई दाग नहीं। तो कितना अजीब लगेगा सेवानिवृत्त होकर कोई राष्ट्रपति फिर से अध्यापकी में लौटे, बच्चों को पहाड़े याद कराए, बच्चों को बेंच पर खड़ा करे या कोई प्रधानमंत्री चाय की दुकान में लौट कर चाय बेचे।
एक और संकट भी है। लेस वलेसा जब राष्ट्रपति के चुनाव हार कर अपने धंधे में लौट रहे हैं तो उनकी इतनी उम्र बाकी है और उनमें इतना दमखम भी है कि अपने पुराने काम को कर सकें बल्कि कुछेक बरस काम करते रह सकें। अपने यहां पर आलम यह है कि जब वे समाज के किसी काम के नहीं रहते तभी राजनीति में आते हैं।
नहीं, हम नहीं चाहेंगे कि हमारे राजनीतिज्ञ लोग अपने पुराने धंधे में लौटे। किसी भूतपूर्व मंत्री को गैंगवार करते या बलात्कार करते हमसे नहीं देखा जाएगा। राजनीति के अपराधीकरण का मामला फिर भी हमने झेल लिया है अब अपराधों का राजनीतिकरण होने लगे तो.....।

तेरे प्यार में

जब वह अगली बार मिली तो बताया उसने - कल देर शाम हमारे घर टेलिफोन लग गया है।
मैंने बधाई दी और कहा कि ये तो बहुत ही अच्छी खबर है।
तभी उसने बताया कि जब कल शाम आठ बजे फोन चालू हुआ तो सबसे पहले मैंने ही उसका उद्घाटन किया और तुम्हारा नंबर डायल किया।
मैं हैरानी से बोला - अरे, तुम्हें पता तो है कि हमारा आॅफिस छह बजे बंद हो जाता है।
वह भड़की- तुम निरे बुद्धू हो। पता नहीं, तुम्हारे प्यार में कैसे पड़ गयी।
और वह उस दिन सचमुच नाराज हो कर चली गई थी।
कई दिन बाद मुझे समझ में आया था कि वह मुझसे कितना प्यार करती थी कि फोन पर सबसे पहले मेरा ही नंबर डायल करने का जो सुख उसने पाया था, मुझसे साझा करना करना चाहती थी। बेशक जानती थी कि बंद आॅफिस में देर तक घंटी बजती रहेगी।
हम कितने बुद्धू होते हैं न कि प्यार की अलग अलग इबारतें समझ ही नहीं पाते।

बुधवार, 21 अगस्त 2019

ये बाल मुझे दे दे


तब राजीव गांधी जिंदा थे। शायद प्रधान मंत्री भी थे। शायद क्‍या, प्रधान मंत्री ही थे। उन्‍हीं दिनों बाज़ार में अनूप तेल आया था। सिर पर बाल उगाने का शर्तिया इलाज। इतना शर्तिया कि अनूप तेल वाले हर शीशी के साथ एक कंघी मुफ्त देते थे। उन्‍हें पता था कि तेल लगाते ही रातों-रात आपके सिर पर बाल उग आयेंगे तो आधी रात को आप कहां कंघी खोजते फिरेंगे। वे यही सोच के कंघी मुफ्त देते थे। ये होती है आशावाद की चरम सीमा।
कहा जाता है कि राजीव गांधी ने भी अपने खोये हुए बाल अनूप तेल की मेहरबानी से ही पाये थे। कहा तो ये भी जाता है कि राजीव गांधी अनूप तेल के अघोषित ब्रैंड एम्‍बेसेडर थे। राजीव गांधी जी के जाने के बाद पता नहीं तेल का क्‍या हुआ लेकिन तब से देश में गंजों की तादाद बहुत बढ़ गयी है। हर तरफ गंजे ही गंजे नज़र आते हैं।
सब गंजों की एक स्‍थायी चिंता होती है कि गिरते बालों को कैसे रोकें और गिर चुके बालों को वापिस कैसे पायें। गंजों की इस स्‍थायी और सदाबहार चिंता का ध्‍यान रखते हुए अब बाल उगाने, लगाने और सहलाने वाली बहुत सी कंपनियां बाज़ार में उतर गयी हैं। वे सारे गंजे सिरों पर बाल उगाने के लिए एक तरह से छटपटा रही हैं। उनसे गंजों का गंजापन देखा नहीं जा रहा। लेकिन गंजे हैं कि अपने सिर पर हाथ ही नहीं धरने दे रहे। उनका सारा धंधा चौपट किये दे रहे हैं। इन कंपनियों का बस चले तो गुस्‍से में सारे गंजों के बाल नोच लें, लेकिन संकट यही है कि गंजों के बाल नहीं है और बाल लगवाने के लिए वे तैयार नहीं हैं। गंजे हैं कि मानते नहीं। न लगवाने को, न नुचवाने को।
अब बाज़ार में एक नयी कंपनी आ गयी है। वे गिन कर बाल बेच रहे हैं। 75000 रुपये में 3000 बाल। यानी लगभग 250 रुपये का एक बाल। वैसे कंपनी ने यह नहीं बताया है कि बाल किसके सिर से उतार कर आपके सिर पर लगाये जा रहे हैं और कि 250 रुपये के एक बाल की औसतन लम्‍बाई क्‍या होगी। वारंटी और गारंटी के बारे में भी वे चीनी कंपनियों की तरह खामोश हैं। बाइ वन गेट वन फ्री भी नहीं कह रहे। ये भी नहीं बता रहे कि ये सिर्फ बाल की कीमत है या इसमें लगवायी शामिल है। पिछले दिनों मैं इसी तरह के झांसे में फंस चुका। एक इंजेक्‍शन था 1560 रुपये का लेकिन डे केयर सेंटर में इसे लगवाने के चार्ज ही 12000 ले लिये।
वैसे जिसके सिर पर लाखों बाल हों उनके लिए ये गणित बेकार है लेकिन जिसके सिर पर एक भी बाल न हो या गिने चुने बाल हों उनके लिए एक एक बाल की कीमत मायने रखती है। वैसे भी ये कंपनी बाल खरीदने की नहीं, बाल बेचने की बात कर रही है।
जरा सोचिये, गंजों के कितने अच्‍छे दिन आ गये। जेब में जहां 250 रुपये आये, बाल क्लिनिक के आगे लगी कतार में जा कर खड़े हो जायेंगे कि यहां कान के ऊपर या बायीं तरफ या दायीं तरफ एक लम्‍बा सा बाल टांक दो। हो सकता है, एक एक बाल लगवाने के इच्छुक गंजों की लम्‍बी कतारें देख कर कंपनी खुश होने के बजाये ये शर्त ही रख दे कि कम से कम 10 या बीस बाल लगवाने वाले ही कतार में खड़े रहें और बाकी कतार छोड़ कर चले जायें और तभी कतार में वापिस आयें जब उनकी जेब में दस बाल लगवाने लायक पैसे हों। शायद आज नकद और कल उधार या उधार प्रेम की कैंची है जैसा बोर्ड भी लगवा दें। क्रेडिट कार्ड पर पाँच प्रतिशत कैश बैक का ऑफर भी देने लगें। ये बाजार है और बाजार में सबकुछ बिकता है। पहन के उतारी हुई चड्ढी भी।
पुराना मुहावरा है कि आवश्यकता आविष्कार की जननी है। जब एक एक बाल के दिन आयेंगे तो नया बाज़ार विकसित होगा। बाल ऋण मिलना शुरू हो जायेगा। आसान दरों पर। जब एक एक बाल की कीमत चुकायी जायेगी तो उनकी देखभाल भी जरूरी हो जायेगी। तय है बाजार में बाल बीमा कंपनियां भी आ जायेंगी जो शर्तें लागू का बड़ा सा बोर्ड लगा कर एक एक बाल का बीमा करेंगी। बाजार में आये इस नये उत्‍पाद के आने से भाषा भी समृद्ध होगी ही। नये मुहावरे बनेंगे और पुराने मुहावरे नये अर्थ ग्रहण करेंगे। पहले मुहावरा था - अंधा क्‍या चाहे दो आंखें, अब नया मुहावरा बनेगा – गंजा क्‍या चाहे दो बाल। गंजा शब्‍द शायद डिक्‍शनरी में ही रह जाये।
अब बाल खरीद कर लगवाने वाला आदमी आंधी, तूफान, झगड़े फसाद या कोई भी संकट आने पर सबसे पहले अपने बाल बचायेगा। अब यही कहेगा – बाल है तो जहान है। अब लोग किसी गंजे की हैसियत बताते समय कहा करेंगे – उसकी दस हजार बाल खरीदने की हैसियत है। उसे छोटा मोटा मत समझें। तब फिल्‍मों के दृश्‍य इस तरह होंगे। फिल्‍म शोले- गब्‍बर गंजा है। उसके सामने ठाकुर हैं। गब्‍बर चिल्‍लाता है- ये बाल मुझे दे दे ठाकुर। आगे का दृश्‍य आप खुद कल्‍पना कर लें।
मेरे एक चाचा गंजे हैं और विग लगाते हैं। अपनी विग को ले कर बहुत सतर्क रहते हैं। एक दिन स्‍टूल पर चढ़े दीवार पर कील ठोंक रहे थे। बैलेंस बिगड़ा और धड़ाम से नीचे आ गिरे। गफलत में विग भी अलग हुई और पहनी हुई लुंगी भी। कहने की ज़रूरत नहीं कि पहले उन्‍होंने विग ही संभाली थी। अब वे भी शान से बाल लगवा सकते हैं। वैसे भी रिटायर होने के बाद उन्‍हें काफी पैसे मिले हैं। एकाध लाख बाल तो चुटकियों में लगवा सकते हैं। हो सकता है उन्‍हें भारी डिस्‍काउंट भी मिल जाये।
तय है आने वाले दिनों में गिन कर बाल खरीदने वाले भी अपनी दुकानें खोलेंगे ही। आखिर 250 रुपये प्रति बाल बेचने वाली ये कंपनियां तिरुपति के नाइयों के भरोसे ही तो नहीं चलेंगी। बाजार में मांग और आपूर्ति का संतुलन बनाने के लिए बाल खरीदने, खरीदने से पहले खरीदने लायक बनाने और बिकवाने के लिए भी कंपनियां बाजार में उतरेंगी। दलाल भी आयेंगे। आप देखेंगे कि आप अपनी पत्‍नी या प्रेमिका के साथ बाजार जा रहे हैं और कोई दलाल तपाक से उनकी राह रोक कर खड़ा हो जाये- आपके बाल बहुत सुंदर हैं। थोड़े से बेचेंगी। अच्‍छी कीमत दिलवा दूंगा। आप घंटे भर से प्रेमिका की राह देख रहे होंगे और वह थोड़े से फालतू बाल बेचने के लिए कहीं कतार में खड़ी होगी। किसी को पता भी नहीं चलेगा। कुछ दलाल इस तरह बात करेंगे – कमाल करती हैं भेन्‍जी आप भी। अभी परसों ही अपनी टॉप हिरोइन 1000 बाल बेच के गयी हैं। किसी को पता चला क्‍या।
मुझे तो उन्‍हीं अच्‍छे दिनों का इंतज़ार है। पत्‍नियां अब हेयर सैलून के भारी बिल का भुगतान थोड़े से बाल बेच कर किया करेंगी। सैलून वाले भी ये बोर्ड लगाने पर मजबूर होंगे- हम भुगतान के बदले बाल स्‍वीकार करते हैं। तब लोग पैसों की जरूरत होने पर एटीएम जाने के बजाये बाल खरीदने वाली दुकान के सामने कतार में लग जाया करेंगे।
आज सुमित्रा नंदन पंत होते तो कितने अमीर होते।

कुर्सी खाली करने के बाद.....


खबर है कि पोलैंड के भूतपूर्व राष्ट्रपति अब फिर से अपने पुराने धंधे में लौटना चाहते हैं। वे मजदूर नेता से राष्ट्रपति बनने से पहले बिजली मिस्त्री थे। अब फिर से वे बिजली की बिगड़ी चीजें दुरुस्त करेंगे।
स्वाभाविक है कि जब वे ये काम करेंगे तो अपने संस्थान के सेवा नियमों का भी पालन करेंगे। वक्त से आएंगे, जाएंगे। दिन भर डांगरी या यूनिफॉर्म पहनकर अपने औजारों का झोला लटकाए ड्यूटी बजाते मिलेंगे। लंच का भोंपू बजने पर साथियों के साथ मिल बैठ कर टिफिन खोलेंगे। शाम होते ही अपनी साइकिल की घंटी टुनटुनाते हुए बाजार से सब्जी भाजी लाते हुए घर लौटेंगे। यह भी स्वाभाविक है कि नौकरी के साथ जुडी सारी सुविधाओं का लाभ भी उठाएंगे। वे भी महंगाई भत्ते की अगली किस्त का, वार्षिक वेतन वृद्धि का और त्योहार अग्रिम का इंतजार करेंगे। उनके संस्थान में जब हड़ताल होगी तो वे भी नारेबाजी करेंगे ही, बेशक तोड़फोड़ ना करें।
ये सारी बातें सोचते हुए ख्याल आ रहा है कि अगर हमारे यहां भी सेवानिवृत्त या भूतपूर्व या हारे हुए प्रधानमंत्री, राष्ट्रपति, केंद्रीय मंत्री या अन्य नेतागण भी अपने पुराने काम धंधे पर लौटने लगे तो कैसा माहौल बनेगा। राजीव गांधी की हत्या ना हुई होती तो वे भी 10 सशस्त्र कमांडो से घिरे जहाज चला रहे होते या अक्सर होने वाली पायलटों की हड़ताल में हिस्सा ले रहे होते। ज्ञानी जैल सिंह बढ़ई गिरी करते हुए कुर्सियां मेजें ठोकते मिलते। जो राष्ट्रपति या मंत्रीगण खेती की पृष्ठभूमि से आए हैं वे भी सेवानिवृत्ति के बाद बीज भंडार में या डीजल या खाद के लिए अपनी बारी का इंतजार करते हुए दिन गुजारते। कितना अजीब लगेगा नारियल की खेती से जुड़े भूतपूर्व नेता को पेड़ पर चढ़ कर नारियल तोड़ते देखकर।
वैसे तो अपने यहां ना तो कोई नेता रिटायर होता है ना भूतपूर्व। भूतपूर्व मंत्री गवर्नर बना दिए जाते हैं और वर्तमान गवर्नर सक्रिय राजनीति में आकर मंत्री बनने के लिए रात दिन छटपटाते रहते हैं। कुर्सी से उनका नाता सिर्फ ऊपर वाला ही काट सकता है। उस हालत में उनकी कुर्सी, पद, मकान वगैरह उनके परिवारजनों के हिस्से में ही आते हैं। वे न भी लेना चाहते हों तो चमचे उनके पैर पकड़ते हैं कि आप आ जाइये। आप ही देश को बचा सकती हैं।
अब संकट अपने देश का ये है कि यहां के ज्यादातर नेता आपराधिक पृष्ठभूमि वाले हैं। इस चुनाव में उन वृद्ध और वयोवृदृध नेताओं की आखिरी खेप भी निपट जायेगी जो वाया आजादी की लड़ाई राजनीति में आए थे। बाद में तो जो भी सत्ता संभालेंगे उनकी सप्लाई का ठेका अपराध जगत ही लेगा। जो आपराधिक पृष्ठभूमि से नहीं भी आए हैं, उनके कारनामें ऐसे हैं कि प्रोफेशनल अपराधी उनसे ट्रेनिंग लें। खैर, जो नेता आपराधिक पृष्ठभूमि से आए हैं
उन नेताओं को वहीं वापिस लौटना होगा। वैसे तो वे चुने जाने के बाद भी बिना वापिस लौटे अपने पुराने धंधे ही करते रहे हैं। कई नेताओं ने तो चुनाव भी जेल में रहते हुए लड़े और जीते हैं। शायद ही किसी देश की राजनीति में एक साथ बलात्कारी, स्मगलर करचोर, रिश्वतखोर, जालसाज, अपराध जगत से सीधा नाता रखने वाले, सरकारी मकान पर कब्जा जमाए रखने वाले करोड़ों डकार जाने वाले नेता एक साथ मिलें। तो क्या फर्क पड़ेगा अगर वो रिटायर हो भी जाएं। हां जो जेल से आए थे उन्हें जरूर तकलीफ होगी। इतनी सुविधाएं भोगने के बाद फिर से चक्की पीसना भारी पड़ेगा।
कुछ ऐसे भी होंगे जिन्हें अपना पुराना धंधा अपनाने में तकलीफ होगी। पहले सत्संग करते थे, आशीर्वाद देते थे। हालांकि पैर छूने वालों की यहां भी कमी नहीं है लेकिन राजनीति का खून चख लेने के बाद भला गंगाजल और कंदमूल उन्हें कैसे लगेंगे।
कुछेक के लिए तकलीफ होगी कि वे कई कई बरसों से अपने चुनाव क्षेत्र में ही नहीं गये है। उनके मतदाता लट्ठ लिये उन्हें ढूंढ रहे हैं। कुछेक को तो वे लोग ढूंढ रहे हैं जिनका पैसा खाकर भी काम नहीं किया गया है।
ऐसा नहीं है कि हमारे सारे नेता वहीं से आये हों। कई तो दूध के धुले हुए हैं। वे भी और उनके वस्त्र भी। कहीं कोई दाग नहीं। तो कितना अजीब लगेगा सेवानिवृत्त होकर कोई राष्ट्रपति फिर से अध्यापकी में लौटे, बच्चों को पहाड़े याद कराए, बच्चों को बेंच पर खड़ा करे या कोई प्रधानमंत्री चाय की दुकान में लौट कर चाय बेचे।
एक और संकट भी है। लेस वलेसा जब राष्ट्रपति के चुनाव हार कर अपने धंधे में लौट रहे हैं तो उनकी इतनी उम्र बाकी है और उनमें इतना दमखम भी है कि अपने पुराने काम को कर सकें बल्कि कुछेक बरस काम करते रह सकें। अपने यहां पर आलम यह है कि जब वे समाज के किसी काम के नहीं रहते तभी राजनीति में आते हैं।
नहीं, हम नहीं चाहेंगे कि हमारे राजनीतिज्ञ लोग अपने पुराने धंधे में लौटे। किसी भूतपूर्व मंत्री को गैंगवार करते या बलात्कार करते हमसे नहीं देखा जाएगा। राजनीति के अपराधीकरण का मामला फिर भी हमने झेल लिया है अब अपराधों का राजनीतिकरण होने लगे तो.....।

हम कौन सी किताबें पढ़ते हैं


सबसे ज्‍यादा वे किताबें पढ़ी जाती हैं जो पाठक कहीं से चुरा कर लाता है। किताब चुराने का जोखिम तभी उठाया जायेगा जब किताब नजर तो आ रही हो लेकिन हमारे पास न हो। कई बड़े लेखक किताब चोर रहे हैं। ये एक कला है। 
फिर उन किताबों का नम्‍बर आता है जिन्‍हें हम उधार मांग कर तो लाते हैं लेकिन वापिस नहीं करते। करना ही नहीं चाहते। जिसके यहां से उधार लाये थे, उसके घर आने पर छुपा देते हैं।
फुटपाथ पर बिक रही अचानक नज़र आ गयी वे किताबें भी खूब पढ़ी जाती हैं जिनकी हम कब से तलाश कर रहे थे।
पूरे पैसे दे कर खरीदी गयी किताबें भी अपना नम्‍बर आने पर आधी अधूरी पढ़ ही ली जाती हैं।
लाइब्रेरी से लायी गयी किताबें पूरी नहीं पढ़ी जातीं और उन्‍हें वापिस करने का वक्‍त आ जाता है।
रोज़ाना डाक में उपहार में आने वाली या किसी आयोजन में अचानक लेखक के सामने पड़ जाने पर भेंट कर दी गयी किताबें कभी नहीं पढ़ी जातीं। कई बार तो भेंट की गयी किताबें भेंटकर्ता के जाते ही किसी और पाठक के पास ठेल दी जाती हैं। वह आगे ठेलने की सोचता रहे या बिन पढ़े एक कोने में रखे रहे।
कोर्स की किताबें पढ़ने में हमारी नानी मरती है और समीक्षा के लिए आयी किताबें भी तब तक पढ़े जाने का इंतज़ार करती रहती हैं जब तक संपादक की तरफ से चार बार अल्‍टीमेटम न मिल जाये। तब भी वे कितनी पढ़ी जाती हैं। हम जानते हैं।
पुस्‍तक मेलों में खरीदी गयी किताबें भी पूरे पढ़े जाने का इंतज़ार करते करते थक जाती हैं और अगला पुस्‍तक मेला सिर पर आ खड़ा होता है।
यात्रा में टाइम पास करने के लिए स्‍टेशन, बस अड्डे या एयरपोर्ट पर खरीदी गयी किताबें यात्रा में जितनी पढ़ ली जायें, उतना ही, बाकी वे कहीं कोने में या बैग ही में पड़े-पड़े अपनी कहानी का अंत बताने के लिए बेचैन अपने इकलौते पाठक को वक्‍त मिलने का इंतज़ार करती रहती हैं।
हर व्‍यक्‍तिगत लाइब्रेरी में लगातार कम से कम 40 प्रतिशत ऐसी अनचाही किताबें जुड़ती जाती हैं, जो एक बार भी नहीं खुलती। इनमें किताबों का कोई कसूर नहीं होता जितना उनका गलती से वहां पहुंच जाने का होता है।
मैंने दिल्ली में एक बार एक धनी महिला को अपने ड्राइंग रूम की कलर स्कीम के हिसाब से पचासों किताबें खरीदते देखा था। वे किताबें कभी भी खुलने वाली नहीं थीं।
ये मेरे नोट्स हैं। आपके अनुभव निश्‍चित रूप से अलग हो सकते हैं।

जब हम दोनों ने प्यार के चक्कर में तमिल सीखी

जब हम दोनों ने प्यार के चक्कर में तमिल सीखी
उन दिनों मैं दिल्ली में था। मंटो के शब्दों में कहें तो तब हम दोनों एक दूसरे के प्यार में घुटने घुटने डूबे हुए थे। जब तक हम एक ही ऑफिस में थे तो चल जाता था। दिन में कई बार बात भी और मुलाकात भी हो जाती थी लेकिन जब मैं नौकरी बदल कर दूसरे ऑफिस में चला गया तो बात करने ओर मिलने के मौके दुर्लभ होते चले गए। वह जिस हॉल में बैठती थी वहां पर एक ही कॉमन फोन था और जब वह मुझसे बात करती थी तो पूरे ऑफिस को खबर हो जाती थी। यह बहुत अच्छी स्थिति नहीं थी।
हमें मिले हुए बहुत दिन हो गए थे सो सोचा, लंच के बाद उसके घर के पास ही उससे मिला जाए। उसका घर और ऑफिस पास पास ही थे और वह लंच के लिए घर जाया करती थी। आधे दिन की छुट्टी ले कर एक लंबी मुलाकात हो जाती।
उसका इंतजार करते समय तभी मैंने वहां दीवार पर एक पोस्टर देखा - छह महीने में तमिल सीखें। कक्षाएं मंगल और शुक्रवार छह से आठ बजे तक। पढ़ते ही दिल खुश हो गया।
वह आयी तो नाराज़ होने लगी - यहां क्यों खड़े हो। मैंने बताया - नाराज़ बाद में हो लेना, पहले इसे पढ़ो। दो तीन बार पढ़ने के बाद उसे भी समझ में आ गया कि हमारी नियमित मुलाकातों के लिए कितना अच्छा मौका दिया जा रहा है। कक्षाएं आर के पुरम के सेक्टर छह में दिल्ली तमिल संगम में लगनी थी। यह जगह उसके घर से बहुत दूर नहीं थी।
हमने अगले ही दिन सबसे पहले जाकर एडमिशन ले लिया।
हमने अगले 6 महीने तक लगातार हफ्ते में दो बार, दो ढाई घंटे एक साथ क्लास में बैठकर खूब इश्क भी लड़ाया और तमिल भी सीखी। इन दो दिनों में कितने भी जरूरी काम हों, हम क्लास मिस नहीं करते थे।
आखिरी बात यह कि हम दोनों ने ही इस तमिल कोर्स में टॉप किया था। हमने तमिल में इतनी महारत हासिल कर ली थी कि कई बार फोन पर भी तमिल में बात करते थे, प्रेम पत्र भी तमिल में लिखते थे और अक्सर बात भी तमिल में करते।
आज चालीस बरस बाद सोच रहा हूँ कि अगर वह फेसबुक पर होगी तो ये पढ़ कर तमिल में कुछ बुदबुदा रही होगी।

लेखकों की दुनिया

लेखकों की दुनिया
किसी भी लेखक की अपनी खुद की दुनिया बहुत पेचीदगी भरी होती है और कई बार उसे उसके लिखे हुए के जरिये नहीं पहचाना जा सकता। लेखक के भीतरी और बाहरी संघर्ष, उसकी कुछ खास आदतें, उसकी जीवन शैली, लिखने के लिए खुद को तैयार करने के कुछ नायाब तरीके, उसकी तकलीफें और कई बार उसकी जीवन शैली के हैरान कर देने वाले पक्ष हमें लेखक के नज़़दीक ले जाते हैं और हमें यकीन होने लगता है कि लेखन करना अय्याशी करने जैसा तो नहीं ही होता।
लेखन एक ऐसी साधना है जिसकी अभिव्‍यक्‍ति के किसी अन्‍य माध्‍यम से तुलना नहीं की जा सकती।
दुनिया भर के लेखकों के बारे में पढ़ने पर पता चलता है कि शायद ही कोई ऐसा लेखक हो जिसे तरह तरह की तकलीफ़ों से न गुज़रना पड़ा हो। किसी लेखक का बचपन ही बचपनविहीन रहा तो किसी लेखक को भयंकर आर्थिक और दूसरी तरह की तकलीफों से दो चार होना पड़ा। कई ऐसे भी लेखक रहे जो जीवन के आये दिन के संघर्षों का डट कर मुकाबला नहीं कर पाये और शराब की शरण में चले गये। कुछ लेखक बेहतरीन रच कर खुदकुशी कर बैठे। कई लेखक ऐसे भी रहे जिन्‍होंने अद्भुत रचा लेकिन उन्‍हें उनके काम की तुलना में मान्‍यता या तो मिली ही नहीं या कम मिली या देर से मिली या मिली तो मरने के बाद मिली।
चाहे कुछ भी रहा हो, हर लेखक ने अपना बेहतरीन लेखन आने वाली पीढ़ियों को दिया। दुनिया का हर लेखक अपने शब्‍दों के जरिये हमारे बीच आज भी ज़िंदा है। वैसे भी कहा जाता है कि लेखक कभी मरता नहीं, वह अपने शब्‍दों के जरिये देश, काल और भाषा की सारी सीमाएं लांघता हुआ हमेशा ज़िंदा रहता है।
हर लेखक दूसरे लेखक से अलग होता है। उसकी आदतें, उसकी लिखने की शैली, उसका लेखन के लिए खुद को तैयार करना अपने आप में रोचक अध्‍ययन होता है। हर लेखक इस मायने में अनूठा होता है कि वह दिन के किस समय लिखता है, एकांत में लिखता है या शोर शराबे में लिखता है। शब्‍द गिन कर लिखता है या हर तरह के लेखन के लिए अलग रंग के कागज स्‍याहियां चुनता है। कई ऐसे भी लेखक रहे जो खड़े हो कर या लेट कर लिखते थे। कोई लेखक पहाड़ पर जा कर ही लिख पाता है तो किसी को घर का शोर शराबा ही लिखने के लिए प्रेरणा देता है। कुल मिला कर ये एक बहुत ही रोचक अध्‍ययन है और इस बात पर भी रोशनी डालता है कि लेखक कुछ न कुछ रचते रहने या राइटर्स ब्‍लॉक से बचने के लिए क्‍या क्‍या जुगतें नहीं भिड़ाता।
लेखकों की दुनिया एक ऐसी ही किताब है जो आपको दुनिया भर के कम से कम पांच सौ लेखकों से मिलवाती है। इन लेखकों ने सब कुछ सहा लेकिन टूटे नहीं और हमें अपना सर्वश्रेष्‍ठ दे कर गये।
किसी भी भाषा में अपने तरह की पहली किताब जो हमें दुनिया भर के लेखकों की भीतरी दुनिया में ले जाती है।
किताबवाले प्रकाशन से छपी 250 पेज की हार्ड बाउंड किताब का मूल्य चार सौ रुपये है।

सोमवार, 12 अगस्त 2019

कहानी - ये हत्‍या का मामला है




व्‍हाट्सअप पर मैसेज की आवाज़ आयी है। देखता हूं गुलाटी साहब का मैसेज है। दिन में उनके कई मैसेज आते रहते हैं। ज्‍यादातर फारवर्डेड। अरे, ये तो उनका ग्रुप मैसेज है - साहब जी, अगर आप घर पर हैं या आस-पास हैं तो तुरंत मेरे घर पहुंचें लेकिन हर हालत में 11:00 बजे से पहले। फोन न करें। सी 303 अटलांटा।
      हैरानी हो रही है अचानक बुलाया है और फोन करने से भी मना किया है। घड़ी देखता हूं नौ बजे हैं। मेहता मेरी ही बिल्‍डिंग में रहते हैं। उनसे पूछता हूं। वे भी परेशान हो रहे हैं। अचानक क्या हो गया है? फोन करने से भी मना कर रहे हैं।
हम दोनों यही तय करते हैं कि ग्रुप के बाकी सदस्यों को भी इतला कर देते हैं कि हम सब साढ़े नौ बजे गुलाटी की बिल्डिंग के नीचे इकट्ठे हों और फिर एक साथ उनके घर पर जाएं।
पत्‍नी को बताता हूं अचानक गुलाटी ने सबको बुलवाया है, पता नहीं क्‍या हो गया हो। उन्होंने ठंडी सांस भरी है – रब्ब खैर करे।
गुलाटी जी के घर पहुंचते-पहुंचते हम 7 लोग जमा हो गए हैं। सातों के चेहरे पर अनिश्चितता और आशंका है कि पता नहीं क्या हुआ होगा। लिफ्ट से बाहर निकलते ही सामने गुलाटी का डबल फ्लैट है। दरवाजा खुला हुआ है, गुप्ता जी बाहर ही खड़े हैं और सामने ही ड्राइंग में फर्श पर सफेद कपड़े से ढकी एक डैड बॉडी रखी हुई है। चेहरा ढका हुआ है। हम सकते में आ गए हैं। मिसेज गुलाटी तो आजकल बेटों के पास कनाडा गई हुई हैं और गुलाटी तो अकेले रहते हैं इन दिनों, तो फिर यह कौन?
गुलाटी हमें एक साथ आया देख कर दरवाजे पर आ गये हैं। गुप्ता जी ने फुसफुसाकर बताया है - प्रोफेसर जायसवाल। कल रात नींद में गुजर गये।
- अरे, जायसवाल, इस तरह अचानक? हमने हैरान होते हुए गुलाटी से पूछा है - और फिर आपके घर पर कैसे?  
- ये सारे सवाल आप बाद में पूछना। पहले आप लोग जितने ग्रुप मेम्‍बर्स को इकट्ठा कर सकते हो, करो। किसी को फोन पर बताने की जरूरत नहीं है। बस, यहां आने के लिए कहें। गुलाटी मेहता की तरफ मुड़़े हैं और मेहता जी, आप गुप्ता जी के साथ दरवाजे के पास रहें और हर आने वाले को अटैंड करें। ज्‍यादा बताने के लिए कुछ है नहीं और ज़रूरत भी नहीं है।
      हम प्रोफेसर जायसवाल की डेड बॉडी के पास आए हैं। चेहरे से चादर हटाकर देखते हैं। चेहरा वैसे ही उदास है जैसे हर रोज़ हुआ करता था। वैसा ही भावहीन। मुक्‍ति पा जाने का अहसास जरूर आ जुड़ा है चेहरे पर। परम शांत मुद्रा। मैं और नहीं देख पाता। हमने चेहरा ढका है और कुर्सियों पर आ बैठे हैं। उफ, ये मौत भी न।
      अब तक बीस के करीब लोग ड्राइंग रूम में जमा हो गये हैं। हम सबको नहीं जानते। हो सकता है, प्रोफेसर जायसवाल के परिचित या रिश्‍तेदार हों या इसी बिल्‍डिंग के रहते हों।
गुलाटी मेरे पास आ कर बैठ गये हैं। वे मेरी आंखों में सवाल पढ़ लेते हैं। खुद बताते हैं मैं सुबह जब उन्हें सैर पर जाने के लिए उठाने गया तो हिले ही नहीं। रोजाना मुझसे पहले उठ कर तैयार हो जाते थे। उनका चेहरा देखते ही समझ गया कि ये अनंत यात्रा पर निकल चुके हैं। सामने ही डॉक्‍टर चोपड़ा रहते हैं। उन्हें फटाफट बुलाया। वे आये। दो मिनट में ही बता दिया कि रात में साइलेंट अटैक आया है। नींद में चल बसे। आदमी को खुद पता नहीं चलता ऐसे अटैक का। चुपचाप निकल लिया हमारा यार।
-       डेथ सर्टिफिकेट?
-       डॉक्‍टर चोपड़ा एमडी हैं। उन्‍होंने ही दिया है।
-  अंतिम संस्कार कैसे करना है? मतलब इनके घरवालों को खबर करनी होगी। यहां कोई है या किसी का इंतजार करना होगा?
      गुलाटी बताते हैं बेटा था, मर चुका है, यहां बहू के पास सफायर टावर में रहते थे, वह भी आजकल मायके गयी हुई है। इनके पेपर्स में उसका मोबाइल नंबर कहीं मिला नहीं। इनके पास मोबाइल था नहीं। कुछ दिन से मेरे पास ही रह रहे थे। सवेरे गुप्ता जी चेक करने गये थे शायद बहू आ गयी हो। घर पर ताला बंद है। ग्वालियर में इनके कुछ लोग होंगे, अब किसे खबर करें।
      ये हमारे लिए खबर थी। पूछता हूं मैं - और संस्कार?
- गुप्ता जी ने सारी तैयारी करा दी है। हम ही करेंगे। हमसे सगा उनका और कौन था।
      - वहां खबर कर दी है?
- हां, इलेक्ट्रिकल संस्कार होगा। भतीजे को भेजकर खबर करा दी है। पंडित जी आते ही होंगे।
      देखते देखते हमारा पूरा ग्रुप आ चुका है। बिल्‍डिंग के भी कुछ लोग चेहरा दिखा गये हैं। 
शव वाहिनी के आने तक पंडित जी सबकी मदद से शव को स्‍नान आदि करा चुके हैं। कुछ लोग शव वाहिनी में और कुछ कारों में श्मशान घाट की ओर चल दिये हैं। जो लोग ज्‍यादा देर तक खड़़े नहीं रह सकते या बैठ नहीं सकते या श्मशान भूमि तक नहीं जाना चाहते, उन्‍होंने गेट से ही शव को हाथ जोड़ कर माफी मांग ली है और अपने घरों को लौट गये हैं।
अचानक सब बहुत उदास हो गए हैं। कोई इस तरह से जाता है क्या? चुपचाप। बिना बताये। हवा भी नहीं लगने दी किसी को।
अंतिम संस्कार से लौटते-लौटते एक बज गया है। गुलाटी ने श्मशान घाट में ही सबको बता दिया है कि शाम को शांति कुटीर में आयें। कुछ बातें शेयर करनी हैं। वैसे भी सबके पास बहुत सारे सवाल हैं जिनके जवाब गुलाटी ही दे सकते हैं। मैं और मेहता गुलाटी को अपने साथ ले आये हैं। हम जानते हैं इस मौके पर अपने इतने बड़े घर में उनका अकेले रहना ठीक नहीं होगा। बाकी दिनों की बात अलग है। उनके घर के नीचे गाड़ी रुकवा कर हमने इतना जरूर कर दिया है कि वे अपने लिए एक जोड़ी कपड़े लेते आयें।  
मेरे घर पहुंचते ही गुलाटी अचानक मेरे गले लग कर फूट फूट कर रोने लगे हैं - जायसवाल को उनके घर वालों ने मार डाला और हम कुछ भी नहीं कर सके। कुछ भी नहीं कर सके। मार डाला उन्‍होंने अपने पिता को। वे रोये जो रहे हैं। सुबह से उन्‍होंने अपनी रुलाई रोकी हुई थी। मैंने उन्‍हें रोने दिया है। मेरी आंखें भी गीली हैं लेकिन मैं किसी तरह से अपनी रुलाई रोके हुए हूं।
स्‍नान करने और खाना खा लेने के बाद हमने गुलाटी को एक तरह से जबरदस्‍़ती सुला दिया है।
शाम को जब मैं गुलाटी के लिए चाय ले कर गया हूं तो वे जाग चुके हैं और एक डायरी के पन्‍ने पलट रहे हैं।
खुद ही बताते हैं प्रोफेसर जायसवाल की डायरी है। वे कभी कभार लिखते थे। सुबह मेज पर ये डायरी रखी मिली। उनके घर वालों के नंबर वगैरह देखने के लिए पन्ने पलटे। कोई नंबर तो नहीं मिले लेकिन उस आदमी की उदास रूह के दर्शन ज़रूर हो गये।
दोपहर को जब घर पर कपड़े लेने गया था तो साथ लेता आया। वाहे गुरू, कितनी बेचारगी की ज़िंदगी जी रहा था ये आदमी। अपने गलत फैसलों का शिकार हो गया और बेमौत मारा गया।
मैं सुन रहा हूं। जायसपाल के बारे में हम कितना कम जानते थे। बस यही कि वे चार पांच महीने से हर शाम शांति कुटीर में हमारे साथ बैठने लगे थे। हमेशा गुमसुम और उदास रहने वाले जायसवाल ने शायद पिछले पांच महीनों में पचास वाक्‍य भी नहीं बोले होंगे। यही इस शहर की कमीनगी है। हमें बरसों तक अपने पड़ोसियों के नाम तक पता नहीं चल पाते। अगर गुलाटी न बताते तो पता ही न चलता कि जायसवाल सफायर में रहते थे। सफायर अभी कुछ महीने पहले बनी है। हमसे दो बिल्डिंग बाद में है। वे तो फिर भी दो बिल्डिंग परे रहते थे, मैं अपनी ही बिल्डिंग वालों को कहां जानता हूं। पड़ोसी का चेहरा देखे छ: महीने हो गये होंगे।
      हम शांति कुटीर के लिए निकलने को हैं कि पत्‍नी ने इशारा किया है आप शांति कुटीर से गुलाटी साहब को साथ लेते आना। खाना बना रखूंगी। आज रात वे हमारे घर ही टिक जायें। उनका वहां अकेले रहना ठीक नहीं।
मैं समझ गया हूं। गुलाटी ने उनकी बात सुन ली है घबराओ मत भाभी जी, मुझे क्‍या होना। रब्‍ब दी मेहर है। लेकिन पत्‍नी ने इस बार सीधे गुलाटी से ही कह दिया है तुस्‍सी इत्‍थे ही आओगे। मैं रोटी बणा के रक्‍खांगी।
शांति कुटीर एटलांटा के ठीक नीचे वाला पार्क का एक कोना है। गुलाटी वाली इमारत के ठीक नीचे। कभी पार्क का यह उपेक्षित हिस्‍सा पेड़ों से गिरे पत्‍ते और सूखी टहनियां जमा करने के काम आता था। नीचे सैप्‍टिक टैंक है। कभी किसी को सूझा ही नहीं कि पार्क के इस हिस्‍से को भी विकसित किया जा सकता है। तब तक सभी इमारतों में सोसाइटियां नहीं बनी थीं और एक तरह से ये जगह भी बिल्‍डर के कब्‍जे में थी। गुलाटी ने ही तब भाग दौड़ करके यह आशियाना बनवाया था। पूरी जगह की सफाई करायी थी और बीचों बीच एक गोलाकार प्‍लेटफार्म बना कर ऊपर चारों तरफ खंबों के सहारे कलवे वाली छत बनवा दी थी। जब यह जगह तैयार हुई थी तो यहां सिर्फ बैठने के लिए गोलाकार लगी हुई चार बेंचें थीं और एक बल्‍ब के जरिये रौशनी की जाती थी। अब यहां बारह बेंचों के लायक जगह निकाल ली गयी है। ट्यूब लाइटें, पंखे, घड़ी सब लग चुके हैं। पता नहीं ऐसे कैसे होता चला गया कि यहां शाम को पूरे एन्‍क्‍लेव की महिलाएं आ कर बैठती हैं और उनके जाने के बाद सीनियर सिटिजन आते हैं। दिन में यहां कभी गिटार की क्‍लास चल रही होती है तो कभी अकेले दुकेले जन बैठे होते हैं। दिन में प्रेमी जोड़े भी यहां अक्सर देखे जा सकते हैं। सीनियर सिटिजन भी कहीं से आते हुए अपने घर जाने से पहले यहां एक बार ज़रूर बैठते हैं।
सीनियर सिटिजन क्‍लब इसी जगह की देन है। साठ के करीब नियमित सदस्‍य हैं लेकिन रोज़ाना बैठने वाले दस पन्‍द्रह ही हैं। यहां सब मेम्बर्स का जन्‍मदिन मनाया जाता है। जिस दिन किसी का जन्मदिन होता है तो पच्‍चीस तीस तक आ जाते हैं। प्रोफेसर जायसवाल लगभग पांच महीने पहले इस क्‍लब में आये थे।
आज यहां रोज़ाना की तुलना में ज्यादा लोग आए हैं। सब जायसवाल की मृत्यु के कारण और खासकर गुलाटी के घर उनकी मृत्‍यु और वहीं से संस्‍कार किये जाने के बारे में जानना चाहते हैं।
जब सब इकट्ठे हो गए हैं तो गुलाटी ने अपनी भारी आवाज़ में कहना शुरू किया है – आपको बता देता हूं कि प्रोफेसर जायसवाल पिछले कुछ दिन से मेरे घर पर रह रहे थे। मेरी सरदारनी आजकल बड़े बेटे के पास कनाडा गई हुई है और मैं चार कमरे के फ्लैट में अकेला रहता हूं। जब मुझे जायसवाल की हालत के बारे में पता चला तो मैंने उन्‍हें अपने घर बुला लिया था। आखिर वे हमारे दोस्त थे। हमारे क्‍लब के मेंबर थे। ज़रूरतमंद थे। परेशानियां किसके जीवन में नहीं आतीं। आपने उन्‍हें हमेशा उदास और चुप देखा होगा। आपको शायद पता हो, तीन महीने पहले उनके इकलौते जवान बेटे की मौत हो गई थी। बेटे ने दो बरस पहले ही लव मैरिज की थी इसलिए वे बहू से बहुत ज्यादा ट्यूनिंग सेट नहीं कर पाये थे। मुझे उन्‍होंने बहुत कम बातें बतायी थीं। ये सारी डिटेल्‍स मुझे भी आज सुबह ही उनकी डायरी पढ़ कर पता चली हैं। वे कभी कभी डायरी लिखा करते थे।
गुलाटी जी रोने लगे हैं – सुबह मेरे सामने उनकी डेड बॉडी रखी थी और मैं इस डायरी के पन्ने पढ़ता हुआ जार जार रो रहा था। कसम से दोस्तो, मैं पिछले कई वर्षों से रोया नहीं था और आज मैं अपना रोना रोक नहीं पा रहा हूं। ये डायरी कच्‍चा चिट्ठा है एक ऐसे शख्‍स के जीवन का जो अपने गलत फैसलों का शिकार हो गया। जब आप देखेंगे तो आपको हर हरफ पर ढेरों आंसू नज़र आयेंगे जो इस डायरी के पन्‍ने पन्‍ने पर सूख कर उस बदनुमा रिश्‍ते के गवाह बन गये हैं जो हमें शर्मसार ही करते हैं। इससे ज्यादा तकलीफ की बात क्या होगी कि कल रात की डायरी की एंट्री में आखिरी वाक्य अधूरा है और उस पर सूखे हुए आंसू हैं।
यह कहते हुए उन्‍होंने अपने अपने बैग में से डायरी निकाल कर सामने मेज पर रख दी है - मेरी हिम्मत नहीं है कि इस डायरी को पढ़ कर सुनाऊं। यह डायरी आपके सामने है। आप में से जो इसे पहले पढ़ना चाहे, ले जा सकता है और बारी-बारी से दूसरों को पढ़ने के लिए दे सकता है। यह कहते हुए वे फिर रोने लगे हैं रब्‍ब किसी को इस तरह की डायरी लिखने के लिए मजबूर न करे। काश, हम प्रोफेसर जायसवाल को बचा पाते। अभी उनके मरने की उम्र नहीं थी। मुझसे चार महीने छोटे थे और मुझसे पहले चले गये। गुप्ता जी जरूर पूरे मामले के बारे में जानते हैं।
      वे रुके हैं। फिर पानी का गिलास पी कर बता रहे हैं – हम कुछ दिन से एक साथ रह रहे थे। वे पीते नहीं थे, मांस मछली नहीं खाते थे और मैं इन सारी चीजों के बिना एक दिन भी नहीं रह पाता। उन्‍होंने मेरे खाने पीने पर कभी एतराज नहीं किया। उनके लिए सादी दाल रोटी बनती थी और वे चुपचाप खा लेते थे। मुझे चुप रहने में बहुत तकलीफ होती है लेकिन दोस्तो, उस भले इन्‍सान से एक वाक्‍य भी बुलवाना मुश्‍किल काम होता था। वह चुप्‍पा इंसान अपने सीने में कितने तूफान अपने साथ लेकर चला गया है। हम होते तो कब के टूट चुके होते लेकिन उसने इस हालत में कई साल गुजार दिए थे और किसी से कोई शिकायत नहीं की थी। वे क्या थे यह तो उनकी डायरी से ही पता चलेगा। मेरी हिम्मत नहीं है कि मैं यह डायरी पूरी पढ़ सकूं। मैं उस शख्‍स के साथ रहने के बावजूद उसे कहां पढ़ पाया था।  
      अब गुप्ता जी ने अपनी बात कहनी शुरू की है – मुझे गुलाटी जी ने ही जायसवाल जी से मिलवाया था। अब मैं आपको बता ही देता हूं कि उन्होंने पुत्र मोह में आ कर अपना पुश्तैनी मकान बेच कर सारी रकम, जी हाँ, एक करोड़ दस लाख रुपये अपने बेटे को यहां सफायर में मकान खरीदने के लिए गिफ्ट के रूप में दे दी  थी। इससे पहले दस लाख रुपये उसकी एमबीए के लिए दे चुके थे। जायसवाल जी एक डिग्री कॉलेज के रिटायर्ड प्रिंसिपल थे, फिर भी पता नहीं, इतना गलत फैसला कैसे ले लिया। उनका बेटा और बहू दोनों आइआइएम बेंगलूर के एमबीए हैं।
दो तीन महीने पहले बेटे की एक एक्सीडेंट में मौत हो गयी थी। सारे डॉक्यमेंट्स में नामिनी उसकी बीवी थी जोकि एक नेचुरल सी बात है। अब कहानी में एंगल ये आता है कि जायसवाल जी की बहुत बड़ी मदद से बना ये घर, ग्रुप इंश्योरेंस की रकम और लाइफ इंश्योरेंस के तथा दूसरे तमाम फंड उसकी बेवा बीवी के नाम हो गये हैं। इसमें भी हमें एतराज नहीं है। तकलीफ की बात ये हुई कि बहू ने जायसवाल जी को एक तरह से घर से बाहर कर दिया था। वह खुद आजकल अपने ट्रांसफर के चक्कर में गुड़गावां गयी हुई है। जायसवाल जी इन दिनों पैसे पैसे को मोहताज थे और उन्होंने हमसे किसी वृद्धाश्रम का पता भी पूछा था जहां वे जा कर रह सकें।
हम सब गुलाटी जी को जानते हैं और उनकी शख्सियत का एक और पहलू आज खुद देख चुके है। हम जासयवाल जी को कानूनी मदद दिलाने की प्रोसेस शुरू कर चुके थे। उन्हें उनका हक दिलाते ही। आज उनके गुजारे भत्ते के लिए बहू के खिलाफ एफआइआर दर्ज करायी जानी थी। बदकिस्मती से जायसवाल जी ने यहां भी एक दिन इंतजार करने के बजाये एक बार फिर सरंडर कर दिया।
इन दोनों के बाद कुछेक सदस्‍यों ने अपने अपने तरीके से यही बात कही है कि ये तो साफ पता चलता था कि वे किसी गहरी तकलीफ से जूझ रहे हैं लेकिन कभी भी किसी से अपनी बात शेयर नहीं की।
उनकी आत्‍मा की शांति के लिए दो मिनट का मौन धारण करने के बाद सभा विसर्जित कर दी गयी है। डायरी सबसे पहले ठाकुर ले गये हैं। उनके जीवन का कुछ अरसा ग्‍वालियर में बीता है, इसलिए।
      जीवन फिर से अपने ढर्रे पर चलने लगा है। हम अब भी रोज शाम को शांति कुटीर में मिलते हैं और जिसने भी उस दिन जायसवाल जी की डायरी पढ़ी होती है, जायसवाल के जीवन के दो चार दुखद प्रसंगों का जिक्र जरूर छेड़ देता है। इस बीच गुलाटी जी कुछ दिन के लिए अपने भतीजे के साथ अमृतसर चले गये हैं।
लगभग बीस दिन बाद आज डायरी मेरे हिस्‍से में आयी है। कुछेक लोग इसे आराम से पढ़ना चाहते हैं इसलिए उन्होंने पूरी डायरी की फोटोकॉपी करवा कर रख ली है। मुझसे पहले डायरी मेरी पत्नी के पढ़ ली है और पूरी शाम रोती रही हैं।
      मुझे पता है, अब तक जायसवाल जी के बारे में, उनकी तकलीफों के बारे में जो कुछ भी पता चला है, उस सबसे डायरी के पन्नों के जरिये एक बार फिर उनसे गुज़रना आसान नहीं होगा। डायरी लगभग दस बरस पुरानी है। उसमें जब भी लिखा गया है, पन्ने पर छपी हुई तारीख के हिसाब से नहीं लिखा गया है। इस तरह से पिछले दस बरस में लगभग दो सौ बार डायरी लिखी गयी है। कई बार कुछ कुछ दिन के अंतराल पर तो कभी महीनों, बरसों के अंतराल पर। लेकिन एक बात जरूर है कि जिस दिन भी वे ज्यादा तकलीफ में रहे हैं या ज़रा सा भी खुश हुए हैं तो अपने मन की बात डायरी से शेयर की है।
मैं सारे पन्ने नहीं पढ़ पाता। सबसे पहले इस एंट्री पर निगाह पड़ती है

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तो शारदा अपनी तकलीफों से हमेशा के लिए मुक्‍त हो गयी। मुझसे रोने के लिए अकेला छोड़ गयी। उसके बिना घर भांय भांय करता है। डॉक्‍टर बेचारे अपनी तरफ से हर कोशिश कर करके हार गये। उसके बदले मैं क्‍यों नहीं मर गया।
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वरुण का आइआइएम बेंगलूर में सेलेक्‍शन हो गया है। अब तक तो यहीं मेरे पास रह कर पढ़ रहा था। दोनों को एक दूसरे का सहारा था। वह भी अब चला जायेगा। शायद हमेशा के लिए। एमबीए के बाद भला ग्‍वालियर उसे कहां खपा पायेगा। इसका मतलब अब लंबा अकेलापन मेरे हिस्से में आने वाला है।
सुबह हम हिसाब लगा रहे थे। फीस, किताबों, लैपटॉप, हॉस्‍टल के खर्च सब मिला कर दस लाख की जरूरत पड़ेगी। शारदा के इलाज के लिए समय समय पर फंड से पांच लाख पहले ही निकाल चुका हूं। ये दस लाख निकालने के बाद पता नहीं कुछ बचता भी है या नहीं। बड़े बाबू ने आगाह किया है कि आजकल तो बैंकों से एमबीए के लिए चुटकी बजाते लोन मिल जाते हैं। आप ये रकम न ही निकालें तो बेहतर।
उधर वरुण अलग राग अलाप रहा है पापा, आपके रिटायर होने से दो बरस पहले ही मेरा एमबीए पूरा हो जाएगा। अच्‍छी नौकरी कहीं नहीं गयी। बस इधर नौकरी लगी और उधर आपके दस लाख चुकाते देर नहीं लगेगी।
आखिर इकलौता बेटा है और हमेशा अव्वल आता रहा है। बिना ट्यूशन पढ़़े यहां तक पहुंचा है। मेरे पैसों पर पहला हक उसी का है। मैंने फैसला उसके हक में किया है।
एक जाइंट खाता खोल कर पांच लाख उसमें डाल दिये गये हैं। बाकी की 13 महीने की एफडी करा दी है। एटीएम कार्ड और चेकबुक वरुण को दे दी है। जब चाहे जितना चाहे निकाले।
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आज बहुत दिनों के बाद अच्‍छी खबर आयी है। कैम्‍पस सेलेक्‍शन से वरुण का बंबई में एक अच्‍छी कंपनी में जॉब लग गया है। उसने खुद तो नहीं बताया है कि उसका पे पैकेज कितना है लेकिन कॉलेज में कोई लेक्‍चरर बता रहा था कि उसका भतीजा आइआइएम लखनऊ से पास आउट हुआ है और सीधे सोलह लाख सालाना के पैकेज पर उसका कैम्‍पस सेलेक्‍शन हुआ है। वरुण पर गर्व हो रहा है। उसने निराश नहीं किया है।
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वरुण ने अपना वादा पूरा किया है। उसने अपने पहले वेतन से बीस हजार रुपये भेजे हैं। मेरे लिए रेडीमेड कपड़े भी। मैंने पूरे स्‍टाफ को मिठाई खिलाई है। बड़े बाबू यूं ही डरा रहे थे।
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इस हफ्ते रिटायर हो रहा हूं। इसी कॉलेज में पढ़ा था और इसी कॉलेज में लेक्चरर बन कर आया था। बाद में 50 साल की उम्र से अब तक 10 साल तक प्रिंसिपल के रूप में ईमानदारी से अपनी ड्यूटी निभायी। अब इससे अलग होने की घड़ी आ गयी। एक तरह से बेदाग कैरियर रहा। मन उदास हो रहा है।
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अकाउंटेंट बता रहा था कि अब तक आप फंड से 15 लाख रुपये उठा चुके हैं। पहले मैडम के इलाज के लिए और फिर बेटे के लिए। इस तरह से आपके खाते में कुल मिलाकर बकाया तीन लाख रुपये हैं। मुझे पता है ये रकम और मेरी थोड़ी बहुत बचत की रकम मेरे बाकी जीवन के लिए बहुत कम है। वरुण तो जैसे भूल ही गया है। जॉब लगने के बाद पिछले डेढ़ बरस में उसने सिर्फ पचास हजार रुपये भेजे हैं। उसे अच्‍छी तरह से पता है कि मेरी पेंशन नहीं है और घर खर्च का कोई नियमित सिलसिला नहीं है मेरे पास। यही हाल रहा तो मुझे अपने घर का एक पोर्शन किराये पर देना पड़ सकता है। अब लग रहा है कि मुझे उस वक्‍त एकांउटेंट की बात मान लेनी चाहिए थी।
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आज तो कमाल हो गया। दो अच्‍छी खबरें एक साथ मिलीं। वरुण ने कूरियर से मेरे लिए रिटायरमेंट के अगले ही दिन की बंबई की एयर टिकट भेजी है और दूसरे उपहारों के साथ एक लाख रुपये का चैक भेजा है। उसका जब फोन आया तो बोला पापा, आपको सरप्राइज देना चाहता था। आप बंबई पहुंचेंगे तो एक और सरप्राइज आपका इंतजार कर रहा होगा।
रिटायरमेंट पर इतनी खबरें एक साथ। वरुण की तरफ से एक लाख रुपये का उपहार, पहली बंबई यात्रा और वह भी हवाई जहाज से। मन हल्‍का हो गया है।
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बंबई एयरपोर्ट पर वरुण मुझे लेने आया है। एक और सरप्राइज के साथ। अपनी बीवी प्रभा के साथ वह मुझे लेने आया है। बता रहा है पापा, हम दोनों क्‍लास फैलो थे। पन्द्रह दिन पहले ही शादी की है। शादी में किसी को भी नहीं बुलवाया। फालतू की शो बाजी में हम दोनों का ही विश्‍वास नहीं। प्रभा के माता-पिता को भी बाद में खबर की है। अब आप आ गये हैं तो घर पर ही एक छोटा सो गेट टुगेदर कर लेंगे।
वरुण की ब्‍याहता सुंदर है। मैंने दोनों को जी भर के आशीर्वाद दिये हैं। एयरपोर्ट से बाहर आये हैं तो एक और सरप्राइज। वरुण की शानदार कार। मुझे हंसी आ रही है मैं पूरी जिंदगी अपने वेतन से एक स्‍कूटर तक नहीं खरीद पाया और वरुण ने दो बरस के भीतर ही इतनी महंगी कार खरीद ली है।
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वरुण का घर बहुत अच्‍छा है। टू बेड रूम हॉल। सलीके से सजाया हुआ। बता रहा है कि ये मुंबई का पॉश इलाका हीरानंदानी एरिया है। मुंबई में ट्रैफिक की बहुत मारा मारी है और यहां से दोनों को आफिस नजदीक पड़ता है। मकान का किराया पूछने पर वह टाल गया है।
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मुंबई आये मुझे एक महीना हो गया है। इस बीच हाउस वार्मिंग, उनकी शादी की पार्टी और मेरे साठ बरस पूरे होने का मिली जुली पार्टी एक साथ हो चुकी। पूरी मुंबई घुमा दी है दोनों ने।
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दोनों सुबह जल्‍दी ही काम पर चले जाते हैं। मेरे पास सारा दिन करने के लिए कोई काम नहीं होता। दिन भर फ्लैट में अकेला रहता हूं। कभी आसपास या पार्क में घूमने चला जाता हूं। दोनों शाम को आगे पीछे लौटते हैं तो इतने थके होते हैं कि बात ही नहीं हो पाती। बात करने के लिए सिर्फ छुट्टी का दिन मिलता है लेकिन उस दिन कोई ना कोई मेहमान आ जाता है या ये दोनों किसी से मिलने चले जाते हैं। मेरे हिस्‍से में वही अकेलापन। कई बार वरुण से कह चुका हूं मैं वापिस जाना चाहता हूं। लेकिन वह हर बार यही कहता है क्‍या करेंगे वहां अकेले रह कर। यहां आराम से रहिये ना।
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आखिर तीन महीने मुंबई में रह कर मैं ग्‍वालियर लौट आया हूं। हर तरह के अनुभव लिये। रिटायरमेंट के बाद पहली बार अकेला रह रहा हूं। बहुत खालीपन पसर गया है जीवन में। किसी ने सच ही कहा था कि अपने आपको इस दूसरी इनिंग के लिए तैयार करना इतना आसान नहीं होता।
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पिछले एक बरस में वरुण के गिने चुने फोन आये हैं। मैं जब भी फोन करता हूं वह या तो किसी मीटिंग में होता है या ड्राइव कर रहा होता है। पूरे साल में उसने बीस हजार रुपये भेजे हैं। मैंने घर का एक पोर्शन किराये पर दे दिया है। घर भी गुलज़ार हो गया है और घर खर्च में भी आसानी हो गयी है।
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अचानक वरुण आया है। कई बरस बाद। एक खास बात करने। वह मुंबई में घर खरीदना चाहता है। बता रहा है कि जो घर उसकी निगाह में है, उसका क्‍लासफैलो उस बिल्‍डर का जनरल मैनेजर है। एक एन्क्लेव में एक नयी विंग बन रही है। वह सारे दोस्‍तों को दिलवा रहा है। थ्री बीएचके। तीन बाल्‍कनी। एकदम शानदार नयी कॉलोनी। घर अपने बजट में है और वह अपने रसूख से पांच सात लाख कम करवा देगा। कुछ फर्निशिेंग भी कंपनी के खर्च पर करवा देगा। शानदार लाइफ स्टाइल। स्वीमिंग पूल, जिम, क्लब, लाइब्रेरी सब हैं। बिल्‍डिंग के नीचे ही गार्डन है। आपके लिए बहुत अच्‍छा रहेगा।
बता रहा है कि घर दो करोड़ का है। उसकी सैलरी के हिसाब से उसे कुल 80 लाख का लोन मिल पाएगा। थोड़ी बहुत दोनों की बचत है। सवाल एक करोड़ का है। उसने मकसद की बात कही - अगर आप ग्वालियर का यह घर बेचकर हमेशा के लिए हमारे पास आ जाएं तो मैं अपना घर खरीदने का सपना पूरा कर सकता हूं। सिर्फ 27 बरस की उम्र में अपना घर।
लगता है उसके पास घर खरीदने के लिए अनिगनत तर्क हैं - पापा, मैं इस समय अपने घर का जितना किराया दे रहा हूं, उतने में तो अपने घर की किस्‍त निकल जाएगी और टैक्‍स रिबेट मिलेगी वो अलग। और फिर अपने घर की बात ही कुछ और होती है।
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मैं सकते में आ गया हूं। तय नहीं कर पा रहा कि यह घर बेच कर वरुण का घर बसाने के लिए फैसला करूं। घर बेचने के मतलब, ग्‍वालियर से, अपने  पुश्तैनी घर से हमेशा के लिए नाता टूट जायेगा। अभी तो मैं अपने घर में हूं, बेशक अकेले रहने की तकलीफें हैं लेकिन है तो मेरा पुश्‍तैनी घर। हमेशा के लिए मुंबई जाने का मतलब वरुण के घर पर उसकी और बहू की शर्तों पर रहना। वरुण ने नौकरी लगने के बाद अभी तक दस लाख में से मुश्‍किल से चार लाख वापिस किये हैं। और अब यह घर बेचने का राग।
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वरुण रोज़ रात को मेरे कानों की मालिश करता है। लगता है, वह तय कर के आया है जब तक इस घर का सौदा नहीं हो जाता वह वापिस नहीं जायेगा।
मैं भी सोचता हूं कि मेरे मरने के बाद यह घर वैसे भी उसके हिस्से में आने वाला था, क्या हुआ जो मेरे जीते जी आ जाए। और फिर वह इस घर को बेचकर घर ही तो ले रहा है। तय है, वह अपनी नौकरी के चलते कभी भी ग्वालियर नहीं आ पाएगा। एक तरह से ठीक भी है कि मेरे जीते जी प्रॉपर्टी निकल जाए और मैं अपने सामने और उसका घर बनता देखूंगा।
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मैंने भरे मन से हां कर दी है। वरुण तो जैसे इसी बात की राह देख रहा था। एक हफ्ता बीतते न बीतते घर बिक चुका है। मन उदास है। इसी घर में मेरा जन्म हुआ था, यहीं शारदा ब्याह कर आयी थी और इसी घर में वरुण का जन्‍म हुआ था। मन कैसा कैसा हो रहा है। सब कुछ छूट जाएगा।
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प्रापर्टी ट्रांसफर के पेपर्स साइन करते समय ही मुझे पता चला है कि खाली जमीन के साथ इतना बड़ा घर एक करोड़ दस लाख में बिका है। कुछ और इंतजार करते तो और अच्छे पैसे मिल सकते थे।
वरुण ने एक वकील की मौजूदगी में कुछ ज्युडिशियल पेपर्स पर मुझसे साइन कराये हैं। पूछने पर उसने बताया है कि ये गिफ्ट डीड है। मतलब आप इस प्रापर्टी को बेच कर मिले पैसे मुझे गिफ्ट कर रहे हैं। जब सारा धन दे दिया है तो ये डॉक्यूमेंट भी सही। मैंने साइन कर दिये हैं।
किताबें कॉलेज में डोनेट कर दी हैं और ज्‍यादातर सामान जरूरतमंदों में बांट दिया गया है। बाकी बचा सामान ट्रक में लदकर पता नहीं कहां चला गया और मैं देखता रह गया। पूछने पर वरुण टाल गया। कितनी तो पुश्तैनी चीजें थीं।
मैं हैरान हूं कि वरुण ये सब काम कैसे पलक झपकते कर गया।
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और इस तरह से मैं एक नयी अटैची और एक बैग में अपना सारी गृहस्‍थी समेट कर हमेशा के लिए मुंबई आ गया हूं। वरुण ने उसी दिन पूरी रकम अपने खाते में ट्रांसफर करवा ली थी। वह इन दिनों अचानक अपने नये घर को ले कर बहुत बिजी हो गया है और बात करने के लिए भी उसके पास समय नहीं है। अभी हम किराए वाले घर में ही हैं। अपना घर दो महीने में तैयार हो जाएगा। रोज शाम दोनों सिर जोड़ कर बैठ जाते हैं और नये घर की एक एक डिटेल तय करते हैं। मैं इस बातचीत में कहीं शामिल नहीं किया जाता। हम सब दो तीन बार देखने गये हैं। ड्राइंग रूम की और दो कमरों की पार्क की तरफ बाल्कनी है। वरुण बताता है कि आपका  कमरा भी पार्क की तरफ वाली बाल्कनी वाला है। मुझे अपना कमरा अच्‍छा लगा है।
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हम अपने घर में शिफ्ट हो गये हैं। बेशक अपने घर में हूं लेकिन मैं इससे घर से जुड़ नहीं पा रहा हूं। यह घर मेरा नहीं है। दरवाजे पर वरुण जायसवाल की नेम प्लेट लगी है। ग्वालियर वाले घर में मेरे नाम की नेम प्‍लेट लगी थी।
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यहां आए हुए दो बरस हो गए हैं लेकिन मैं आज तक इस घर को अपना नहीं समझ पाया। मन ही नहीं लगता यहां। वही पुराना अकेलापन। दोनों जॉब के लिए सुबह ही निकल जाते हैं। जाते समय पोते को बेबी सिटिंग के लिए रास्‍ते में छोड़ते जाते हैं और शाम को दोनों में से जो भी पहले आता है, वह लेता आता है। मैं सारा दिन अकेले पड़ा रहता हूं। जाऊं तो जाऊं कहां। घर या पार्क। बस। बहुत कम दोस्त बन पाये हैं।
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एक अच्छी बात हुई है कि पार्क के कोने में बने शांति कुटीर के बारे में मुझे पता चला है। शाम सात से नौ बजे तक सभी बिल्डिंगों के सीनियर सिटिजन वहां बैठते हैं। एक दिन मैं वहां यूं ही चला गया था। कुछ बूढ़े हैं जो मेरी तरह हैं और बच्चों के पास पर्मानेंटली रहते हैं या आये गये बने रहते हैं। कुछ के खुद के घर हैं और उनके बच्चे उनके साथ रहते हैं। गुलाटी जैसे भी हैं जो फोर बैड रूम के फ्लैट में सिर्फ मियां बीवी रहते हैं। बता रहे थे कि उनकी सरदारनी अक्सर कनाडा जाती रहती है। वहां उसकी तीन बहुओं में से कोई न कोई प्रेगनैंट होती ही है।
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मुझे सिनियर सिटिजन क्लब में शामिल कर लिया गया है। अक्सर शाम को उनके बीच जी बैठता हूं बेशक उनकी दुनिया भर की बातों में शामिल नहीं हो पाता। शांति कुटीर में धूमधाम से सबके जन्मदिन मनाये जाते हैं, जो लोग पीते हैं, वे महीने में एक बार बीयर या दारू पार्टी करते हैं और बरस में एक बार सब सीनियर सिटिजन दिन भर की पिकनिक पर जाते हैं। आज मुझे बहुत शर्म आयी जब फार्म भरते समय मुझसे छ: सौ रुपये देने के लिए कहा गया। मैंने यही बताया कि उधार रहे। बाद में कभी दे दूंगा।
मैं उन सबका उत्साह देख कर हैरान हुआ। कभी स्कूली बच्चों के लिए किताबें जमा की जा रही हैं तो कभी जरूरतमंदों के लिए पुराने कपड़े या दूसरी काम की चीजें जुटायी जा रही हैं। काश, मैं किसी तरह का सहयोग कर पाता।
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यहां आने के बाद वरुण ने मुझे कोई भी रकम नहीं लौटायी है। मकान बेचकर जितने भी पैसे मिले थे सारे के सारे उसने उसी दिन अपने नाम पर ट्रांसफर कर लिये थे। रिटायरमेंट पर मिले पैसे कब के खत्‍म हो चुके हैं।
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वरुण ने कभी इस बात की जरूरत नहीं समझी कि वह मुझसे पूछे पापा, आपको भी तो थोड़ा बहुत पैसों की जरूरत होती होगी। बेशक मेरा मेडिकल इंश्योरेंस उसकी कंपनी की तरफ से है लेकिन उसमें डे केयर शामिल नहीं होता। थोड़े बहुत पैसों की जरूरत हमेशा पड़ती है। इनसान की बीसियों जरूरतें होती हैं। वरुण को अच्‍छी तरह से पता है कि मेरे पास पैसों का कोई इंतजाम नहीं है। एक दो बार जतलाया तो वह टाल गया। अब मांगने की इच्‍छा नहीं होती। बेसिक जरूरतें भी टलती रहती हैं।
हम बेशक रोज रात को बैठते हैं, खाना एक साथ खाते हैं, दिन भर की गतिविधियों पर बात करते हैं लेकिन कभी भी यह बात सामने नहीं आती कि पापा आप दिन भर क्या करते हैं। अकेले बोर हो जाते होंगे। कभी पिक्‍चर या कॉफी शॉप ही चले जाया करें।
एक बार किसी दवा की जरूरत थी, मैं दो तीन दिन तक वरुण को याद दिलाता रहा। आखिर नहीं आयी। उसने कह ही दिया - पापा, आपको पता तो है कि मुझे सिर खुजाने की फुर्सत नहीं मिलती। यहां हर चीज की होम डिलीवरी है। जो भी जरूरत हो आप मंगवा लिया करें। सबके नंबर किचन में चार्ट पर लिखे रखे हैं। अलबत्‍ता, उसने यह नहीं बताया कि दवा या सामान मंगवाने पर देने के लिए पैसे किस अल्‍मारी में रखे हैं। इसके बाद मैंने किसी भी चीज के लिए कहना बंद कर दिया है।
हैरान होता हूं कि कई बार दोनों को घर में मेरी मौजूदगी महसूस ही नहीं होती।
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मेरी जिंदगी का सबसे बड़ा हादसा हो गया है। मैं तो बरबाद हो गया। इस बुढ़ापे में ये दिन भी देखना था। पिछले हफ्ते वरुण नहीं रहा। एक कार एक्सीडेंट में ऑन द स्पॉट डेथ हो गई उसकी। वे तीन कलीग पुणे से लौट रहे थे कि उनकी गाड़ी एक ट्रक से टकरा गई और तीनों नहीं रहे। समझ नहीं आ रहा कि खुद को कैसे संभालूं और रोती-बिलखती बहू को कैसे संभालूं। हादसे की खबर मिलते ही दिल्ली से बहू के पेरंट्स वगैरह आ गये थे। अभी यहीं हैं।
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जीवन जैसा भी है, वरुण के बिना चलने लगा है। बहू ने अपना ऑफिस ज्‍वाइन कर लिया है, अलबत्‍ता उसकी मां यहीं रह गयी है। दोनों से जरूरत भर बात होती है या ना के बराबर होती है। मां बेटी की सुविधा के लिए मैं अब गेस्‍ट रूम में शिफ्ट कर दिया गया हूं। मैं अपने कमरे में सारा दिन रोता बिलखता रहता हूं। क्या कहूं, किससे कहूं। पहले बहू से जो भी बात होती थी, वरुण के जरिए होती थी और उसके न रहने पर उससे सीधे संवाद करने की स्थिति ही नहीं आ पाती। कभी कभार पोते को गोद में ले कर खुद बहलने और उसे बहलाने की कोशिश करता हूं। हे भगवान, मैंने ऐसा बुढ़ापा तो नहीं चाहा था।
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गेस्ट रूम में आने से बहुत तकलीफ हो गयी है। उसमें कोई बालकनी नहीं है। सिर्फ एक खिड़की है और ये कमरा पूरे घर से अलग है।
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पता चला है कि पिछले दिनों बहू को वरुण के ऑफिस में बुलाया गया था। वह अपनी मां के साथ गयी थीं। मुझे नहीं ले जाया गया। न ही वापिस आने के बाद बताया ही गया कि वहां क्‍या बात हुई और सेटलमेंट के बाद क्‍या तस्‍वीर बनती है।
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अभी भी लगातार यही जतलाया जा रहा है कि बहू को अपनी अकेले की सेलेरी से मकान की बकाया किस्तें और ब्‍याज चुकाने में बहुत तकलीफ हो रही है। वरुण ने कुछ और भी लोन ले रखे थे। उसके फंड से और बीमा से जो पैसे मिले थे, वे काफी होते हुए भी नाकाफी हैं। बहू का एनुअल पैकेज बीस लाख से ज्‍यादा है, इसके बावजूद दिन रात पैसों की कमी का रोना रोया जाता है।
मेरी हालत तो उससे भी गयी गुजरी है। ग्वालियर का घर बेचने से पहले भी खाली था और अब भी खाली हूं।
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अब नयी खुसुर पुसुर शुरू हो गयी है। बहू गुड़गावां सेंटर में अपने ट्रांसफर की बात चला रही है ताकि वह मां की निगरानी में रह सके। बहू के पेरेंट्स दिल्‍ली में वसंत एन्‍क्‍लेव में रहते हैं और वहां से बहू का आफिस कुछ ही किमी के फासले पर है।
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इस खबर ने मुझे बुरी तरह से डिस्‍टर्ब कर दिया है। ये तय है कि जब हर तरह के झूठ बोले जा रहे हैं और षडयंत्र किये जा रहे हैं तो ये घर कम से कम मेरे भरोसे तो नहीं ही छोड़ा जायेगा और न ही बहू के साथ मेरे दिल्ली शिफ्ट होने की बात आयेगी। मुझे बहू से पूरी सहानुभूति है। हम दोनों का दुख एक ही है। उसने पति खोया है मैंने बेटा। यह भी तय है कि बहू देर सबेर दूसरा घर बसायेगी ही। लेकिन मेरा क्‍या होगा। इस बारे में कुछ भी सोचा नहीं गया है न ही मुझसे कोई राय ही ली गई है। मुझसे तो कोई बात करने वाली ही नहीं है।
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बहू मां के साथ दिल्ली गयी हुई है। हैड ऑफिस में ट्रांसफर की बात करने और दिल्ली शिफ्ट होने के बारे में पता लगाने। दस दिन के लिए कह कर गयी है। वैसे खाना बनाने वाली बाई और सफाई वाली बाई आती रहेंगी, लेकिन बहू ने एक बार भी नहीं सोचा कि एक दो हजार रुपये मुझे दे जाये। मैंने बहू से कहा भी लेकिन वह नहीं ही दे कर गयी है। मेरे पास रोजाना सब्जी या दूध मंगाने या कुछ खत्म हो जाने की हालत में बाजार से लाने के लिए भी पैसे नहीं हैं।
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दोनों बाइयों ने तीसरे दिन के बाद से आना बंद कर दिया है। खाना बनाने वाली बाई सोचती होगी कि अकेले बुड्ढे के लिए दो वक्त आ कर खाना बनाने की मगजमारी कौन करे।
अब मेरे पास कहीं बाहर खाना खाने जाने के अलावा कोई उपाय नहीं है। खाना बनाना आता है और बरसों अपने लिए और वरुण के लिए बनाया भी है लेकिन यहां रसोई के ऑटोमैटिक पाइप्ड गैस का सिस्टम ही मुझे नहीं आता। किसी ने बताया ही नहीं। दूध ब्रेड सब खतम हैं। रेस्तरां कितनी दूर है, मुझे नहीं पता, होम डिलीवरी कभी मंगायी नहीं। मंगा सकता भी नहीं। न घर में लैंड लाइन है, न मेरे पास मोबाइल। बाइयों के नंबरों की कभी जरूरत नहीं पड़ी।
हालात पागल कर देने वाले हो गये हैं। खाते में चेक करता हूं सिर्फ दो हजार रुपये हैं। खाते में एक हजार मिनिमन बैलेंस छोड़ कर सिर्फ एक हजार ही निकाले जा सकते हैं। क्‍या करूं। बहू को गये अभी सिर्फ चार दिन हुए हैं। वह कम से कम छ: दिन बाद आयेगी। ज्यादा दिन भी लग सकते हैं।
ग्‍वालियर वापिस लौट जाऊं। लेकिन रहूंगा कहां। डिग्री कॉलेज का प्रिंसिपल रहा, अब कोई छोटी मोटी नौकरी कर नहीं सकता। कभी ट्यूशन पढ़ाने की जरूरत महसूस नहीं हुई। किसी के अधीन काम नहीं कर सकता, लेकिन सवाल वही है कि बहू के यहां से चले जाने के बाद मेरे पास घर ही कहां बचेगा। घर खर्च की बात तो बाद की है। इस घर पर और वरुण के पैसों पर कोई हक रहा नहीं, बहू से उम्‍मीद करना बेमानी है कि वह मेरे खर्च के लिए मेरे मरने तक मुझे कोई बंधी बंधाई रकम देगी।
यहां किसी कोचिंग सेंटर में पढ़ाने या मैनेजर वगैरह की पोस्‍ट के लिए बात की जा सकती है। अटैची खोलता हूं। उसमें मेरे पेपर्स नहीं हैं। याद आया, ग्‍वालियर से आते समय वरुण के बैग में रखवा दिये थे। उसी के कमरे में होंगे। देखता हूं।
बहू अपने और दूसरे कमरे में ताला लगा कर गयी है। इसका मतलब मेरे पेपर्स बहू के आने के बाद ही मिलेंगे। ड्रांइग रूप में एक कूरियर का पैकेट रखा है। पता नहीं, कब आया होगा। शायद मैं सो रहा होऊं और बाई ने रिसीव किया हो। देखता हूं - वरुण की कंपनी से है। भारी लिफाफा है। बहू के नाम पर है। तय नहीं पाता, खोलूं या नहीं, वरुण के फाइनल सेटलमेंट के पेपर्स ही तो होंगे या हाउसिंग लोन के पेपर्स। तय करता हूं, खोलना चाहिये। वरुण की डैथ के बाद के सारे जरूरी कागजात हैं। कुछ स्टेटमेंट हैं। पढ़ना शुरू करता हूं - कंपनी ने एक खास मामले के रूप में बकाया हाउसिंग लोन और उस पर ब्‍याज माफ कर दिया है। इस तरह से अब घर की कोई किस्‍त नहीं चुकायी जानी है। नॉमिनी होने के नाते घर बहू के नाम ट्रांसफर हो गया है। कंपनी से सारा हिसाब किताब होने के बाद और ग्रुप बीमा सेटलमेंट के कुल मिला कर बहू को तीस लाख रुपये मिले हैं जो पिछले महीने बहू के खाते में ट्रांसफर कर दिये गये हैं। बहू वरुण की बीस लाख की एलआइसी पालिसी का भी जिक्र कर रही थी। कुल हुए पचास लाख। ढाई करोड़ का ये घर अलग।
पन्ने पलटते हुए मुझे चक्‍कर आ रहे हैं। रुलाई फूट रही है। उफ, मेरे साथ इतना बड़ा धोखा। छी:, इतनी लालच! और ये सब एक मां अपनी बेटी के साथ कर रही है। एमबीए पास बेटी के साथ जिसका सालाना पैकेज बीस लाख रुपये से ज्‍यादा है। मुझसे हर दिन कितने झूठ बोले गये सिर्फ इसलिए कि कहीं मैं कुछ मांग न लूं जबकि ये घर मेरे ही पैसों से बना है।
मैं कुछ सोच नहीं पाता। बाकी पेपर्स बिना पढ़े छोड़ दिये हैं। मेरा दम घुटने लगा है। चाबी हाथ में लिये मैं घर से बाहर आ गया हूं। पार्क में जाता हूं। मुझे चक्कर आ रहे हैं। किसी तरह शांति कुटीर तक पहुंचता हूं। बैठते ही कर फूट फूट कर रो रहा हूं। पता नहीं कब से रुलाई रुकी हुई थी।
पता नहीं एक घंटा रोता रहा या दो घंटे। मन कुछ थिर हुआ तो मुंह धोने के लिए पानी के लिए आसपास निगाह दौड़ाई है।
किसी की आहट पा कर सिर उठा कर सामने देखता हूं। गुलाटी जी पानी की बोतल लिए मेरे सामने खड़े हैं। मैं सोच नहीं पाता क्‍या कहूं। उनकी बढ़ायी बोतल से पानी ले कर मुंह धोता हूं और पानी पीता हूं। गुलाटी जी पास बैठ गये हैं लेकिन कुछ भी नहीं कहते।
शांति कुटीर में एक एक करके महिलाएं आने लगी हैं। शायद मैं गलत वक्त पर आ गया था। गुलाटी जी ने मेरे कंधे पर हाथ रखा है और इशारा किया है घर चलते हैं। वहीं बात करेंगे। मैं मना नहीं कर पाता और उनके साथ चल दिया हूं। सामने ही तीसरी मंजिल पर घर है उनका। दरवाजा उनकी पत्‍नी ने खोला है। मैं संकोच करता हूं। नमस्‍ते करता हूं। गुलाटी जी उन्‍हें चाय बनाने के लिए कहते हैं और बताते हैं कि हम बेडरूम में कुछ जरूरी बात कर रहे हैं। कोई डिस्‍टर्ब न करे। उन्‍होंने मुझे अपने पीछे आने का इशारा किया है।
हम दोनों ने पानी पिया है। वे बोले हैं आप को कभी इस वक्त शांति कुटीर में नहीं देखा और इस हालत में तो बिल्कुल नहीं देखा। सब खैरियत तो है।
मेरे भीतर बरसों से जमा लावा पिघलने लगा है। मैं भूल गया हूं कि हम एक दूसरे को अच्छी तरह से जानते भी नहीं हैं। लेकिन मुझे लग रहा है कि अगर मैं इस व्‍यक्‍ति से अभी पूरी बात नहीं कर पाया तो कभी भी किसी से भी नहीं कर पाऊंगा।
मैंने धीरे धीरे पूरी बात बतायी है। एमबीए के लिए लोन लेने से ले कर अभी देखी फाइल में दर्ज सच तक।
सुन कर वे गहरी सोच में पड़ गये हैं। बार बार कह रहे हैं ये तो बहुत गलत हो गया है जी। देखें क्‍या रास्‍ता निकलता है।
उन्‍होंने फोन करके गुप्ता जी को तुरंत घर आने के लिए कहा है। पांच मिनट में ही दरवाजे की घंटी बजी है। गुलाटी जी ने उनके लिए चाय के लिए कहा है और बिना एक भी पल गवाये मेरा सारा किस्‍सा बयान कर दिया है।
गुप्‍ता जी भी परेशान हो गये हैं। पूछा है उन्‍होंने आपने बेटे को पढ़ाई के लिए जो दस लाख रुपये दिये थे, उसकी कोई कच्ची पक्की रसीद बनवायी थी कि आप उसे ये रकम लोन के रूप में दे रहे हैं।
मैंने बताया है – नहीं, सिर्फ एक ज्वाइंट एकाउंट खुलवा कर पैसे उसमें डाल दिये थे और एटीएम कार्ड और चेकबुक बेटे को दे दिये थे।
और घर बेचते समय कोई डॉक्यूमेंट?
मैंने बताया कि बेटे ने गिफ्ट डीड के नाम पर कुछ कागजों पर साइन करवाये थे कि मैं ये रकम उसे गिफ्ट के तौर पर दे रहा हूं।
गुप्ता जी सोच में पड़ गये हैं - प्रोफेसर साहब आप पुत्र मोह में एक के बाद गलतियां करते रहे और अपने हाथ कटवाते रहे। इस समय आपकी ये हालत है कि बच्चों को सवा करोड़ रुपये देने के बाद भी आपके पास शाम के खाने के पैसे नहीं हैं। तय है, बहू अपने माता पिता के कहने में है और वह वही करेगी जो उसे सिखाया जायेगा। वह देर सबेर गुडगांवा जायेगी। घर किराये पर देगी या बेचेगी। दूसरी शादी भी करेगी। इस पूरी पिक्चर में आप कहीं नहीं हैं।
गुलाटी साहब ने टोका है - लेकिन गुप्ता जी, ठीक है, गलती इन्सान से ही होती है लेकिन कानून या पुलिस भी तो कुछ मदद करती होगी ऐसे मामले में।
गुप्ता जी बोले हैं - मैं उसी बात पर आ रहा हूं। प्रोफेसर साहब की मदद करने के कानून भी है और संविधान भी। आजकल सुप्रीम कोर्ट ऐसे मामलों को बहुत गंभीरता से ले रहा है। सीनियर सिटिजंस को इज्जत से रहने का पूरा हक है। हम जायसवाल जी को उनका पूरा हक दिलवायेंगे। चार तरीके हैं, बस इन्हें अपने हक के लिए खुद लड़ना होगा।
गुलाटी जी के चेहरे पर रंगत आ गयी है – हुण होई ना गल्ल। आप बतायें तब तक मैं और चाय बनवाता हूं।
गुप्ता जी ने बताना शुरू किया है – पहला तरीका तो यही है कि आप बहू से आमने सामने सीधी बात करें। बिना किसी बिचौलिये के। उसके सामने सारे फैक्ट्स और सबूत रखें कि आप किस तरह से हर बार आगे बढ़ कर वरुण की मदद करते रहे हैं। उसे भी सारे पेपर्स सामने रखने के लिए कहें कि अब जो भी सेटलमेंट हुआ है और घर उसके नाम हुआ है, उसमें से आपके खर्च के लिए वह एक वाजिब रकम आपको हर महीने दे।
गुप्ता जी रुके हैं – दूसरा तरीका ये बनता है कि ये सारी बातें उनके पिता से की जायें। बहू के पिता होने के नाते उन्हें समझायें और वह भी उस हालत में जबकि ये घर आप ही की मदद से बना है और आपके पास अपने खर्च पूरे करने के लिए कोई दूसरा जरिया नहीं है।
गुलाटी साहब ने कहा है- आप चारों ऑप्शन बता दें फिर उन पर डिस्कस करते हैं।
गुप्ता जी ने तीसरा तरीका बताना शुरू किया है। मैं चुपचाप सुन रहा हूं।
- कानून की कई धाराएं काम करती हैं इस तरह के केस में। नजदीकी पुलिस स्टेशन पर एक एफआइआर रजिस्टर करवानी होगी। उसमें ये बताना होगा कि दरअसल मेरे बेटे ने लोन डीड पर साइन करने के लिए कहा था लेकिन धोखे से उसने मुझसे गिफ्ट डीड पर साइन करवा लिये जिसके बारे में मुझे अभी पता चला। ये मेरे साथ धोखाधड़ी हुई है। दूसरे, मेरी बहू मुझे फाइनैंशियली, इमोशनली और मैंटली तंग कर रही है। पुलिस सीनियर सिटिजन के एफआइआर पर तुरंत एक्शन लेती है। और चौथा तरीका बचता है कि बहू के खिलाफ कोर्ट केस किया जाए। उसमें पैसे भी खर्च होते हैं और समय भी लगता है।
- अब ये हम पर है कि हम कौन सा रूट लेते हैं कि प्रोफेसर साहब की जल्द और वाजिब मदद हो जाये।
गुलाटी साहब ने मेरी तरफ देखा है।
मैं सोच में पड़ गया हूं – लेकिन गुप्ता जी, पैसे मैंने अपने बेटे को अपनी सहमति से ट्रांसफर किये थे।
गुप्ता जी की आवाज ऊंची हो गयी है – आज का दिन देखने के लिए ही न। जायसवाल जी, हमारी यही दिक्कत है कि बचपन में बच्चों को पीटते हैं लेकिन बाद में जब जरूरत होती है, हाथ उठाना छोड़ देते हैं और जिंदगी भर उनके आगे गिड़गिड़ाते रहते हैं। आपने वरुण से एक बार भी ऊंची आवाज में कहा होता कि मुझे इज्जत से क्यों नहीं रखता तो बहू की मजाल है आपको बिना पैसे दिये निकल जाती।
गुलाटी जी ने बात बदली है – तो हम किस तरह से शुरुआत करेंगे?
गुप्ता जी ने फैसला सुना दिया है – हम ऑप्शन नंबर एक और दो पर टाइम बरबाद नहीं करेंगे। बहू पहले ही अपने मां बाप के कहने में है और उसकी नीयत खराब है। उसके आगे गिड़गिड़ाने का मतलब नहीं। करोड़ों की प्रापर्टी का मामला है।   
मैंने कुछ कहने की कोशिश की है – लेकिन इस तरह से बहू को कोर्ट में घसीटना। एक बार आमने सामने बात करके देख लेते हैं।
गुप्ता जी ने अपनी आवाज बुलंद रखी है – तो फिर रहिये आप वृद्धाश्रम जा कर। बहू यहां से एक बार गयी तो आपको आपसी सहमति से कुछ भी नहीं मिलने वाला। मैं शर्त लगा कर कह सकता हूं कि आपके पास न तो बहू का मोबाइल नंबर होगा न उसका पता।
मैंने सिर झुका लिया है – नहीं है।
गुप्ता जी नरम हुए हैं - बहू से आप कभी ढंग से संवाद तो कर नहीं पाये, पहली ही बार में गुजारे के लिए रुपये पैसे की बात आप कर ही नहीं पायेंगे। कानून है न आपकी मदद करने के लिए।
गुप्ता जी ने सलाह दी है – आपने बताया कि बहू के आने में अभी एक हफ्ता है। ज्यादा दिन भी लग सकते हैं। हम उसके आने से पहले ही एफआइआर रजिस्टर करवा देंगे ताकि वह अगर तुरंत जाने की तैयारी के साथ आती है तो उसके जाने से पहले उसे घेरा जा सके।
गुलाटी जी ने कहा है - एक काम और करते हैं गुप्ता जी, आज प्रोफेसर साहब यहीं खाना खायेंगे और आज की रात वे अपने घर में रहेंगे। कल दोनों हम सुबह इनसे मिलने आयेंगे। जिन कागजों की ये बात कर रहे हैं, वे देखेंगे। काम के कागजों की फोटो लेंगे ताकि वक्त जरूरत काम आयें और कल ही इन्हें अपने साथ यहां ले आयेंगे। सरदारनी की कल रात की कनाडा की फ्लाइट है। ये अपनी बहू के आने तक ये आराम से यहां रह सकते हैं। मेरा भी दिल लगा रहेगा। एक काम हम करेंगे कि प्रोफेसर साहब के पड़ोसियों को बता देंगे कि इनकी तबीयत ठीक नहीं है। इन्हें अपने साथ ले जा रहे हैं। उनके पास अपना नंबर छोड़ देंगे ताकि बहू के आने पर हमें बता सकें।
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कल अपनी अटैची ले कर गुलाटी जी के घर आ गया हूं। दोनों मुझे लेने आये थे। वरुण के ऑफिस से आये पेपर्स देखे। गुप्ता जी ने कुछ कागजों की फोटो अपने मोबाइल में ले ली। सामने वाले फ्लैट में रहने वाले वर्मा जी को मेरे यहां आने के बारे में बता दिया गया है।
गुलाटी जी मेरा बहुत ख्याल रख रहे हैं। हालांकि अब मुझे जरूरत नहीं है, फिर भी मेरी जेब में दो हजार रुपये डाल दिये हैं। वे मुझे एक नया मोबाइल देना चाह रहे थे लेकिन मैंने मना कर दिया है।
शांति कुटीर में किसी को भी हवा नहीं लगने दी गयी है कि मैं आजकल  गुलाटी जी के घर रह रहा हूं। बस उन्हें मुझसे एक ही शिकायत है कि मैं हमेशा साइलेंट मोड में ही रहता हूं। अब मैं इसमें क्या कर सकता हूं।
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आज गुप्ता जी एफआइआर का ड्राफ्ट तैयार करके दे गये हैं। मेरे सामने रखा है। गुप्ता जी ने राई रत्त्ती सही बातें लिखी हैं और मेरा पक्ष बहुत मजबूत बनाया है। सिर्फ गिफ्ट डीड वाले मामले को छोड़ कर।
बहू से या उसके पिता से बात करने के रास्ते उन्होंने बंद कर दिये हैं। अब पुलिस की मौजूदगी में ही बहू से आमने सामने बात होगी।
कर पाऊंगा मैं ये सब? अपनी बहू के खिलाफ घर पर पुलिस को बुलवा पाऊंगा? कह पाऊंगा कि बहू गुजारे के पैसे नहीं देती। उसके बाद कभी बहू से आंखें मिला

डायरी यहीं तक है। आखिरी वाक्य अधूरा है और वहां कुछ धब्बे देखे जा सकते हैं। निश्चित ही वे आंसुओं के निशान हैं। शायद वे आखिरी वाक्य पूरा करने से पहले ही रोने लगे हों। काफी देर तक रोते रहे हों और जब लेटे हों तो हमेशा हमेशा के लिए नींद में ही चले गये।
डायरी पढ़ने के बाद मेरा दिमाग सुन्न हो गया है। मैं कुछ भी कहने सुनने की हालत में नहीं हूं। बार-बार लग रहा है कि उनकी हत्या की गई है। दो तीन किस्तों में। पहले वार उनके बेटे ने किये थे और उसके जाने के बाद उन्हें मारने की कमान उसकी बीवी ने संभाल ली थी। आज उन्हें पूरी तरह से मार दिया गया है।

क्या मेरी तरह आपको भी नहीं लगता कि यह हत्या का मामला है।
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